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गुप्त धन
 

कृष्णा ने हँसकर सास से कहा—अम्मा जी, आज आप प्रभा को एकाध घण्टे के लिए हमारे पास छोड जाइए। आप उधर से लौटे तब इन्हें लेती जाइएगा, यह कहकर दोनों ने प्रभा को गाडी से बाहर खीच लिया। सास कैसे इनकार करती। जब गाडी चली गयी तब दोनो बहनो ने प्रभा को बगीचे मे एक बेच पर ला बिठाया। प्रभा को इन दोनो के साथ बाते करते हुए बडी झिझक हो रही थी। वह उनसे हँसकर बोलना चाहती थी, अपनी किसी बात से मन का भाव प्रकट नही करना चाहती थी, किन्तु हृदय उनसे खिंचा ही रहा।

कृष्णा ने प्रभा की साडी पर एक तीव्र दृष्टि डालकर कहा—बहन, क्या यह साड़ी अभी ली है। इसका गुलाबी रग तो तुम पर नही खिलता। कोई और रग, क्यों न लिया?

प्रभा—उनकी पसन्द है, मैं क्या करती।

दोनों बहने ठट्ठा मारकर हँस पडी। फिर माया ने कहा—उन महाशय की रुचि का क्या कहना, सारी दुनिया से निराली है। अभी इधर से गये है। सिर पर इससे भी अधिक लाल पगडी थी।

सहसा पशुपति भी सैर से लौटता हुआ सामने से निकला। प्रभा को दोनों बहनो के साथ देखकर उसके जी मे आया कि मोटर रोक ले। वह अकेले इन दोनो से मिलना शिष्टाचार के विरुद्ध समझता था। इसीलिए वह प्रभा को अपने साथ लाना चाहता था। जाते समय वह बहुत साहस करने पर भी मोटर से न उतर सका था। प्रभा को वहाँ देखकर इस सुअवसर से लाभ उठाने की उसकी बड़ी इच्छा हुई। लेकिन दोनों बह्नों की हास्यध्वनि सुनकर वह सकोचवश न उतरा।

थोड़ी देर तक तीनो रमणियाँ चुपचाप बैठी रही। तब कृष्णा बोली—पशुपति बाबू यहाँ आना चाहते है पर शर्म के मारे नहीं आये। मेरा विचार है कि सबधियों को आपस में इतना संकोच न करना चाहिए। समाज का यह नियम कम से कम मुझे तो बुरा मालूम होता है। तुम्हारा क्या विचार है, प्रभा?

प्रभा ने व्यंग्य भाव से कहा—यह समाज का अन्याय है।

प्रभा इस समय भूमि की ओर ताक रही थी। पर उसकी आँखो से ऐसा तिरस्कार निकल रहा था जिसने दोनों बहनो के परिहास को लज्जासूचक मौन मे परिणत कर दिया। उसकी आँखो से एक चिनगारी-सी निकली, जिसने दोनो युवतियो के आमोद-प्रमोद और उस कुवृत्ति को जला डाला जो प्रभा के पति-परायण हृदय को