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प्रेम-सूत्र
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वाणों से वेध रही थी, उस हृदय को जिसमें अपने पति के सिवा और किसी को जगह न थी।

माया ने जब देखा कि प्रभा इस वक्त क्रोध से भरी बैठी है, तब बेच से उठ खड़ी हुई और बोली—आओ बहन जरा टहले, यहाँ बैठे रहने से तो टहलना ही अच्छा है।

प्रभा ज्यों की त्यो बैठी रही। पर वे दोनों बहने बाग़ में टहलने लगी। उस वक्त प्रभा का ध्यान उन दोनो के वस्त्राभूषण की ओर गया। माया बंगाल की गुलाबी रेशम की एक महीन साडी पहने हुए थी जिसमे न जाने कितनी चुन्नटे पड़ी हुई थी। उसके हाथ में एक रेशमी छतरी थी जिसे उसने सूर्य की अतिम किरणो से बचने के लिए खोल लिया था। कृष्णा के वस्त्र भी वैसे ही थे, हॉ, उसकी साडी पीले रंग की थी और उसके बूंधरवाले बाल साड़ी के नीचे से निकलकर माथे और गालों पर लहरा रहे थे।

प्रभा ने एक ही निगाह से ताड़ लिया कि इन दोनो युवतियों में किसी को उसके पति से प्रेम नहीं है। केवल आमोदलिप्सा के वशीभूत होकर यह स्वयं बदनाम होंगी और उसके सरल हृदय पति को भी बदनाम कर देगी। उसने ठान लिया कि मैं अपने भ्रमर को इन विषाक्त पुष्पो से बचाऊँगी और चाहे जो कुछ हो उसे इनके अपर मँडराने न दूंगी, क्योंकि यहाँ केबल रूप और बास है, रस का नाम नहीं।

प्रभा अपने घर लौटते ही उस कमरे मे गयी, जहाँ उसकी लड़की शान्ति अपनी दाई की गोद में खेल रही थी। अपनी नन्हीं जीती-जागती गुड़िया की सूरत देखते ही प्रभा को ऑखे सजल हो गयीं। उसने मातृस्नेह से विभोर होकर बालिका को गोद में उठा लिया, मानो किसी भयकर पशु से उसकी रक्षा कर रही है। उसी दुस्सह वेदना की दशा मे उसके मुंह से यह शब्द निकल गये—बच्ची, तेरे बाप को लोग तुझसे छीनना चाहते है! हाय तू क्या अनाथ हो जायगी? नही-नही, अगर मेरा बस चलेगा तो मै इन निर्बल हाथों से उन्हें बचाऊँगी।

आज से प्रभा विषादमय भावनाओं में मग्न रहने लगी। आनेवाली विपत्ति की कल्पना करके कभी-कभी भयातुर होकर चिल्ला पड़ती, उसकी आँखो में उस विपत्ति की तसवीर खिंच जाती जो उसकी ओर कदम बढ़ाये चली आती थी, पर उस बालिका की तोतली बाते और उसकी आँखों की निशक ज्योति प्रभा के विकल हृदय को शान्त कर देती। वह लड़की को गोद में उठा लेती और वह मधुर हास्य-छवि जो बालिका के पतले-पतले गुलाबी ओठों पर खेलती होती, प्रभा की सारी शंकाओं