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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१७०

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गुप्त धन
 

और बाधाओ को छिन्न-भिन्न कर देती। उन विश्वासमय नेत्रो मे आशा का प्रकाश उसे आश्वस्त कर देता।

हा! अभागिनी प्रभा, तू क्या जानती है क्या होनेवाला है?

ग्रीष्मकाल की चाँदनी रात थी। सप्तमी का चाँद प्रकृति पर अपना मन्द शीतल प्रकाश डाल रहा था। पशुपति मौलसिरी की एक डाली हाथ से पकड़े और तने से चिपटा हुआ माया के कमरे की ओर टकटकी लगाये ताक रहा था। कमरे का द्वार खुला हुआ था और शान्त निशा में रेशमी साडियों की सरसराहट के साथ दो रमणियों की मधुर हास्य-ध्वनि मिलकर पशुपति के कानों तक पहुँचते-पहुँचते आकाश में विलीन हो जाती थी। एकाएक दोनों बहने कमरे से निकली और उसी ओर चली जहाँ पशुपति खडा था। जब दोनो उस वृक्ष के पास पहुंची तब पशुपति की परछाईं देखकर कृष्णा चौक पड़ी और बोली—है बहन! यह क्या है?

पशुपति वृक्ष के नीचे से आकर सामने खड़ा हो गया। कृष्णा उन्हे पहचान गयी और कठोर स्वर में बोली—आप यहाँ क्या करते है? बतलाइए, यहाँ आपका क्या काम है? बोलिए जल्दी।

पशुपति की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। इस अवसर के लिए उसने जो प्रेम-बाक्य रटे थे वे सब विस्मृत हो गये। सशंक होकर बोला—कुछ नहीं प्रिये, आज सन्ध्या समय जब मै आपके मकान के सामने से आ रहा था तब मैंने आपको अपनी बहन से कहते सुना कि आज रात को आप इस वृक्ष के नीचे बैठकर चाँदनी का आनन्द उठायेगी। मै भी आपसे कुछ कहने के लिए......आपके चरणों पर अपना...समर्पित करने के लिए.....

यह सुनते ही कृष्णा की आँखों से चचल ज्वाला-सी निकली और उसके ओठो पर व्यग्यपूर्ण हास्य की झलक दिखायी दी। बोली—महाशय, आप तो आज एक विचित्र अभिनय करने लगे, कृपा करके पैरों पर से तो उठिए और जो कुछ कहना चाहते हों, जल्द कह डालिए और जितने आँसू गिराने हों एक सेकेण्ड में गिरा दीजिए, मैं रुक-रुककर और घिघिया-धिघियाकर बाते करनेवालों को पसन्द नही करती। हाँ, और जरा बातें और रोना साथ-साथ न हों। कहिए क्या कहना चाहते हैं.......आप न कहेंगे? लीजिए समय बीत गया, मै जाती हूँ।