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गुप्त धन
 

कृष्णा—भई, अब तो सुनते-सुनते कान भर गये। यह व्याख्यान और यह गद्य-काव्य सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है। आओ माया, मुझे तो सर्दी लग रही है। चलकर अन्दर बैठे।

यह निष्ठुर शब्द सुनकर पशुपति की आँखो के सामने अँधेरा छा गया। मगर अब भी उसका मन यही चाहता था कि कृष्णा के पैरो पर गिर पड़े और इससे भी करुण शब्दों में अपनी प्रेम-कथा सुनाये। किन्तु दोनो बहने इतनी देर मे अपने कमरे मे पहुँच चुकी थी और द्वार बन्द कर लिया था। पशुपति के लिए निराश घर लौट आने के सिवा कोई चारा न रह गया।

कृष्णा अपने कमरे में जाकर थकी हुई-सी एक कुर्सी पर बैठ गयी और सोचने लगी—कही प्रभा सुन ले तो बात का बतगड़ हो जाय, सारे शहर मे इसकी चर्चा होने लगे और हमें कही मुंह दिखाने को जगह न रहे। और यह सब एक जरा-सी दिल्लगी के कारण! पर पशुपति का प्रेम सच्चा है, इसमे सन्देह नहीं। बह जो कुछ कहता है, अन्तःकरण से कहता है। अगर मैं इस वक्त जरा-सा सकेत कर दूं तो बह प्रभा को भी छोड देगा। अपने आपे में नहीं है। जो कुछ कहूँ वह करने को तैयार है। लेकिन नही, प्रभा, डरो मत, मै तुम्हारा सर्वनाश न करूंगी। तुम मुझसे बहुत नीचे हो। यह मेरे अनुपम सौन्दर्य के लिए गौरव की बात नहीं कि तुम जैसी रूप-विहीना से बाजी मार ले जाऊँ। अभागे पशुपति, तुम्हारे भाग्य में जो कुछ लिखा था वह हो चुका । तुम्हारे ऊपर मुझे दया आती है, पर क्या किया जाय!

एक खत पहले हाथ पड़ चुका था। यह दूसरा पत्र था, जो प्रभा को पतिदेव के कोट की जेब में मिला! कैसा पत्र था? आह! इसे पढ़ते ही प्रभा की देह में एक ज्वाला-सी उठने लगी। तो यों कहिए कि ये अब कृष्णा के हो चुके, अब इसमें कोई सन्देह नही रहा। अब मेरे जीने को धिक्कार है! जब जीवन में कोई सुख ही नही रहा, तो क्यों न इस बोझ को उतारकर फेक दूं। वही पशुपति, जिसे कविता से लेशमात्र भी रुचि न थी, अब कवि हो गया था और कृष्णा को छन्दों में पत्र लिखता था। प्रभा ने अपने स्वामी को उधर से हटाने के लिए वह सब कुछ किया जो उससे हो सकता था, पर प्रेम का प्रवाह उसके रोके न सका और आज उस प्रवाह में उसके जीवन की नौका निराधार बही चली जा रही है।

इसमें सन्देह नही कि प्रभा को अपने पति से सच्चा प्रेम था, लेकिन आत्मसमर्पण