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प्रेम-सूत्र
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की तुष्टि आत्मसमर्पण से ही होती है । वह उपेक्षा और निष्ठुरता को सहन नही कर सकता। प्रभा के मन मे विद्रोह का भाव जाग्रत होने लगा। उसका आत्माभिमान जाता रहा। उसके मन मे न जाने कितने भीषण सकल्प होते, किन्तु अपनी असमर्थता और दीनता पर आप ही आप रोने लगती। आह! उसका सर्वस्व उससे छीन लिया गया और अब संसार में उसका कोई मित्र नहीं, कोई साथी नहीं!

पशुपति आजकल नित्य बनाव-संवार मे मग्न रहता, नित्य नये-नये सूट बदलता। उसे आइने के सामने अपने बालो को संवारते देखकर प्रभा की ऑखो से ऑसू बहने लगते। यह सारी तैयारी उसी दुष्टा के लिए हो रही है। यह चिन्ता जहरीले सॉप की भॉति उसे डस लेती थी; वह अब अपने पति की प्रत्येक बात, प्रत्येक गति को सूक्ष्म दृष्टि से देखती। कितनी ही बाते जिन पर वह पहले ध्यान भी न देती थी, अब उसे रहस्य से भरी हुई जान पडती। वह रात को न सोती, कभी पशुपति की जेब टटोलती, कभी उसकी मेज पर रक्खे हुए पत्रो को पढ़ती। इसी टोह में वह रात-दिन पड़ी रहती।

वह सोचने लगी—मैं क्या प्रेम-वचिता बनी बैठी रहूँ? क्या सै प्राणेश्वरी नहीं बन सकती। जीवन अमर नही है और यौवन भी थोडे ही दिनों का मेहमान होता है। क्या इसे परित्यक्ता बनकर ही काटना होगा! आह निर्दयो, तूने मुझे धोखा दिया। मुझसे आँखे फेर ली। पर सबसे बडा अनर्थ यह किया कि मुझे जीवन का कलुषित मार्ग दिखा दिया। मैं भी विश्वासपात करके तुझे धोखा देकर क्या कलुषित प्रेम का आनन्द नहीं उठा सकती? अश्रुधारा से सीचकर ही सही, पर क्या अपने लिए कोई बाटिका नहीं लगा सकती? वह सामने के मकान मे धुंघराले बालवाला युवक रहता है और जब मौका पाता है, मेरी ओर सचेप्ट नेत्रो से देखता है। क्या केवल एक प्रेम-कटाक्ष से मैं उसके हृदय पर अधिकार नही प्राप्त कर सकती? अगर मैं इस भाँति इस निष्ठुरता का बदला लूं तो क्या अनुचित होगा? आखिर मैने अपना जीवन अपने पति को किसलिए सौंपा था? इसीलिए तो कि सुख से जीवन व्यतीत करूँ। चाहूँ और चाही जाऊँ और इस प्रेम- साम्राज्य की अधीश्वरी बनी रहूँ। मगर आह! वे सारी अभिलाषाएँ धूल मे मिल गयी! अब मेरे लिए क्या रह गया है? आज यदि मै मर जाऊँ तो कौन रोयेगा? नहीं, घी के चिराग जलाये जायेंगे । कृष्णा हँसकर कहेगी—अब बस हम है और तुम। हमारे बीच में कोई बाधा, कोई कटक नहीं है।

आखिर प्रभा इन कषित भावनाओं के प्रवाह में बह चली। उसके हृदय मे

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