पर रखकर अपने पीले मुख को कॉपते हुए हाथो से छिपा लिया। पशुपति ने फिर भी सब कुछ कह ही डाला। लालसाग्नि अब अन्दर न रह सकती थी, उसकीज्वाला बाहर निकल ही पड़ी। तात्पर्य यह था कि पशुपति ने कृष्णा के साथ विवाह करना निश्चय कर लिया था। वह उसे दूसरे घर में रक्खेगा और प्रभा के यहाँ दो रात और एक रात उसके यहाँ रहेगा।
ये बाते सुनकर प्रभा रोयी नहीं, वरन् स्तम्भित होकर खड़ी रह गयी। उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसके गले मे कोई चीज अटकी हुई है और वह सांस नहीं ले सकती।
पशुपति ने फिर कहा—प्रभा, तुम नहीं जानती कि जितना प्रेम तुमसे मुझे आज है उतना पहले कभी नहीं था। मैं तुमसे अलग नहीं हो सकता। मै जीवन-पर्यन्त तुम्हें इसी भाँति प्यार करता रहूंगा। पर कृष्णा मुझे मार डालेगी। केवल तुम्ही मेरी रक्षा कर सकती हो। मुझे उसके हाथ मत छोडो, प्रिये!
अभागिनी प्रभा! तुझसे पूछ-पूछ कर तेरी गर्दन पर छुरी चलायी जा रही है! तू गर्दन झुका देगी या आत्मगौरव से सिर उठाकर कहेगी—मैं यह नीच प्रस्ताव नही सुन सकती!
प्रभा ने इन दो बातो मे एक भी न की। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब होश आया, कहने लगी—बहुत अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा! लेकिन मुझे छोड दो, मैं अपनी मां के घर जाऊँगी, मेरी शान्ता मुझे दे दो।
यह कहकर बह रोती हुई वहाँ से शान्ता को लेने चली गयी और उसे गोद मे लेकर कमरे से बाहर निकली। पशुपति लज्जा और ग्लानि से सिर झुकाये उसके पीछे-पीछे आता रहा और कहता रहा—जैसी तुम्हारी इच्छा हो प्रभा, वह करो, और मैं क्या कहूँ, किन्तु मेरी प्यारी प्रभा, वादा करो कि तुम मुझे क्षमा कर दोगी। किन्तु प्रभा ने उसको कुछ जवाब न दिया और बराबर द्वार की ओर चलती रही। तब पशुपति ने आगे बढ़कर उसे पकड़ लिया और उसके मुरझाये हुए पर अश्रु-सिंचित कपोलों को चूम-घूमकर कहने लगा—प्रिये, मुझे भूल न जाना, तुम्हारी याद मेरे हृदय मे सदैव बनी रहेगी। अपनी अंगूठी मुझे देती जाओ, मै उसे तुम्हारी निशानी समझ कर रक्खूगा और उसे हृदय से लगाकर इस दाह को शीतल करूंगा। ईश्वर के लिए प्रभा, मुझे छोड़ना मत, मुझसे नाराज न होना.....एक सप्ताह के लिए अपनी माता के पास जाकर रहो। फिर मैं तुम्हें जाकर लाऊँगा।
प्रभा ने पशुपति के कर-पाश से अपने को छुड़ा लिया और अपनी लड़की का हाथ