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गुप्त धन
 

प्रभा के सतप्त हृदय मे फिर आशा की हरियाली लहराने लगी, मुरझायी हुई आशा-लताएँ फिर पल्लवित होने लगी! किन्तु यह भी भाग्य की एक क्रीड़ा ही थी। थोड़े ही दिनों मे रसिक पशुपति एक नये प्रेम-जाल में फंस गया और तब से उसके पत्र आने बन्द हो गये। इस वक्त प्रभा के हाथ मे वही पत्र थे जो उसके पति ने योरोप से उस समय भेजे थे जब नैराश्य का घाव हरा था। कितनी चिकनी-चुपड़ी बाते थी। कैसे-कैसे दिल खुश करनेवाले वादे थे! इसके बाद ही मालूम हुआ कि पशुपति ने एक अंग्रेज लडकी से विवाह कर लिया है। प्रभा पर वज्र-सा गिर पड़ा—उसके हृदय के टुकड़े हो गये—सारी आशाओ पर पानी फिर गया। उसका निर्बल शरीर इस आघात को सहन न कर सका । उसे ज्वर आने लगा और किसी को उसके जीवन की आशा न रही। वह स्वयं मृत्यु की अभिलाषिणी थी और मालूम भी होता था कि मौत किसी सर्प की भॉति उसकी देह से लिपट गयी है। लेकिन बुलाने से मौत भी नहीं आती। ज्वर शान्त हो गया और प्रभा फिर वही आगाबिहीन जीवन व्यतीत करने लगी।

एक दिन प्रभा ने सुना कि पशुपति योरोप से लौट आया है और वह योरो- पीय स्त्री उसके साथ नहीं है। बल्कि उसके लौटने का कारण वही स्त्री हुई है। वह औरत बारह साल तक उसकी सहयोगिनी रही पर एक दिन एक अंग्रेज युवक के साथ भाग गयी। इस भीषण और अत्यन्त कठोर आघात ने पशुपति की कमर तोड़ दी। वह नौकरी छोडकर घर चला आया। अब उसकी सूरत इतनी बदल गयी थी कि उसके मित्र लोग उससे बाजार मे मिलते तो उसे पहचान न सकते थे—मालूम होता था, कोई बूढ़ा कमर झुकाये चला जाता है। उसके बाल तक सफ़द हो गये।

घर आकर पशुपति ने एक दिन शान्ता को बुला भेजा। इस तरह शान्ता उसके घर आने-जाने लगी। वह अपने पिता की दशा देखकर मन ही मन कुढती थी।

इसी बीच में शान्ता के विवाह के सन्देश आने लगे, लेकिन प्रभा को अपने वैवाहिक जीवन में जो अनुभव हुआ था वह उसे इस सन्देशों को लौटाने पर मजबूर करता था। वह सोचती, कही इस लड़की की भी वही गति न हो जो मेरी हुई है। उसे ऐसा मालूम होता था कि यदि शान्ता का विवाह हो गया तो इस अन्तिम अवस्था मे भी मुझे चैन न मिलेगा और मरने के बाद भी मै पुत्री का शोक लेकर जाऊँगी। लेकिन अन्त मे एक ऐसे अच्छे घराने से सन्देश आया कि प्रभा उसे 'नाही' न