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प्रेम-सूत्र
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कर सकी। घर बहुत ही सम्पन्न था, वर भी बहुत ही सुयोग्य। प्रभा को स्वीकार ही करना पड़ा। लेकिन पिता की अनुमति भी आवश्यक थी। प्रभा ने इस विषय मे पशुपति को एक पत्र लिखा और शान्ता के ही हाथ भेज दिया। जब शान्ता पत्र लेकर चली गयी तब प्रभा भोजन बनाने चली गयी। भॉति-भाँति की अमगल कल्पनाएँ उसके मन में आने लगी और चूल्हे से निकलते हुए धुएँ में उसे एक चित्र-सा दिखायी दिया कि शान्ता के पतले-पतले होंठ सूखे हुए है और वह काँप रही है और जिस तरह प्रभा पतिगृह से आकर माता की गोद मे गिर गयी थी उसी तरह शान्ता भी आकर माता की गोद मे गिर पड़ी है।

पशुपति ने प्रभा का पत्र पढ़ा तो उसे चुप-सी लग गयी। उसने अपना सिगरेट जलाया और जोर-जोर से खीचने लगा।

फिर वह उठ खड़ा हुआ और कमरे मे टहलने लगा। कभी मूंछो को दांतों से काटता कभी खिचडी दाढ़ी को नीचे की ओर खीचता।

सहसा वह शान्ता के पास आकर खड़ा हो गया और कॉपते हुए स्वर में बोला— बेटी, जिस घर को तेरी मॉ स्वीकार करती है उसे मै कैसे 'नाही' कर सकता हूँ। उन्होंने बहुत सोच-समझकर हामी भरी होगी। ईश्वर करे तुम सदा सौभाग्यवती रहो। मुझे दुख है तो इतना ही कि जब तू अपने घर चली जायगी तब तेरी माता अकेली रह जायगी। कोई उसके ऑसू पोंछनेवाला न रहेगा। कोई ऐसा उपाय सोच कि तेरी माता का क्लेश दूर हो और मैं भी इस तरह मारा-मारा न फिरूं। ऐसा उपाय तू ही निकाल सकती है। सम्भव है लज्जा और सकोच के कारण मैं अपने हृदय की बात तुझसे कभी न कह सकता, लेकिन अब तू जा रही है और मुझे सकोच का त्याग करने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। तेरी माँ तुझे प्यार करती है और तेरा अनुरोध कभी न टालेगी। मेरी दशा जो तू अपनी आँखों से देख रही है यही उनसे कह देना। जा, तेरा सौभाग्य' अमर हो।

शान्ता रोती हुई पिता की छाती से लिपट गयी और यह समय से पहले बूढा हो जानेवाला मनुष्य अपनी दुर्वासनाओं का दण्ड भोगने के बाद पश्चात्ताप और ग्लानि के आँसू बहा-बहाकर शान्ता की केशराशि को भिगोने लगा।

पतिपरायणा प्रभा क्या शान्ता का अनुरोध टाल सकती थी? इस प्रेम-सूत्र ने दोनों भग्न-हृदयो को सदैव के लिए मिला दिया।

—सरस्वती, जनवरी १९२६