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मोटेराम जी शास्त्री
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करेगे। बस वही मेरे दल्लाल होगे। उन्ही की मार्फत मेरे पास रोगी आवेगे। मै आयुर्वेद-ज्ञान के बल पर नही, नायिका-ज्ञान के बल पर धडल्ले से वैद्यक करूँगा, तुम देखती तो जाओ।

स्त्री ने अविश्वास के भाव से कहा—मुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाये। न इधर के रहो न उधर के। तुम्हारे भाग्य मे तो लडके पढ़ाना लिखा है, और चारो ओर से ठोकर खाकर फिर तुम्हे वही तोते रटाने पडेगे।

मोटे०—तुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास क्यो नही आता?

स्त्री—इसलिए कि तुम वहाँ भी धूर्तता करोगे। मै तुम्हारी धूर्तता से चिढ़ती हूँ। तुम जो कुछ नही हो और नही हो सकते, वह क्यो बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये। तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती है और इसी से मुझे चिढ है। मैं चाहती हूँ कि तुम भले आदमी बनकर रहो। निष्कपट जीवन व्यतीत करो। मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?

मोटे०—आखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम आवेगा?

स्त्री किसी रईस की मुसाहिबी क्यो नहीं कर लेते? जहाँ दो-चार सुन्दर कवित्त सुना दोगे वह खुश हो जायगा और कुछ न कुछ दे ही मरेगा। वैद्यक का ढोग क्यो रचते हो!

मोटे०- मुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यों के बाप-दादो को भी न मालूम होगे। और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रुपये पर मारे-मारे फिरते है, मैं अपनी फीस पाँच रुपये रखूँगा, उस पर सवारी का किराया अलग। लोग यही समझेगे कि यह कोई बडे बैद्य है नही तो इतनी फ़ीस क्यों होती?

स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया, बोली—इतनी मे तुमने एक बात मतलब की कही है। मगर यह समझ लो, यहाँ तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा।

मोटे०—(हँसकर) क्या मैं इतना भी नहीं जानता। लखनऊ मे अड्डा जमेगा अपना। साल भर में वह धाक बॉध दूं कि सारे वैद्य गर्द हो जायें। मुझे और भी कितने ही मंत्र आते है। मै रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न करूंगा। कहूँगा, मै जब तक रोगी की प्रकृति को भलीभाँति पहचान न लू, उसकी दवा नहीं कर सकता। बोलो कैसी रहेगी?

स्त्री की बॉछे खिल गयी, बोली—अब मैं तुम्हे मान गयी। अवश्य चलेगी