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गुप्त धन
 

तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई सदेह नहीं रहा। भगर गरीबों के साथ यह मंत्र न चलाना नहीं तो धोखा खाओगे।

साल भर गुजर गया।

भिषणाचार्य पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ मे धूम मच गयी। अलंकारो का ज्ञान तो उन्हें था ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे। उस पर गुप्त रोगो के विशेषज्ञ, रसिकों के भाग्य जागे। पण्डित जी उन्हे कवित्त सुनाते, हँसाले और बलकारक औषधियाँ खिलाते, और बह रईसो मे, जिन्हे पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफो के पुल बाँधते। साल ही भर में वैद्यजी का वह रग जमा, कि बायद व शायद। गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ मे एकमात्र वही थे। गुप्त से चिकित्सा भी करते। विलासिनी विधवा और शौकीन अदूरदर्शी रईसो मे आपकी खूब पूजा होने लगी। किसी को अपने सामने समझते ही न थे।

मगर स्त्री उन्हें बराबर समझाया करती कि रानियो के झमेले में न फंसो, नही एक दिन पछताओगे।

मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये। पडितजी के उपासको मे बिड़हल की रानी भी थीं। राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न जाने किस जीर्ण रोग मे ग्रस्त थी। पण्डितजी उनके यहाँ दिन में पाँच-पाँच बार जाते। रानी साहिबा उन्हे एक क्षण के लिए भी अपने पास से हटने न देना चाहती थी। पण्डितजी के पहुँचने मे जरा भी देर हो जाती तो बेचैन हो जाती। एक मोटर नित्य उनके द्वार पर खडी रहती थी। अब पण्डित जी ने खूब केचुल बदली थी। तजेब की अचकन पहनते, बनारसी साफा बाँधते और पप जूता डाटते थे। मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर बैठकर दनदनाया करते थे। कई मित्रों को रानी साहिबा के दरबार मे नौकर रखा दिया। रानी साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसे टालती।

मगर चर्खे जफाकार और ही षड्यन्त्र रच रहा था।

एक दिन पण्डितजी, रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाई पर एक हाथ रखे नब्ज देख रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परीक्षा कर रहे थे कि इतने मे कई आदमी सोटे लिये हुए कमरे में घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े। रानी ने भागकर दूसरे कमरे की शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिये।