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पर्वत-यात्रा


प्रातःकाल मुं० गुलबाजखॉ ने नमाज पढी, कपडे पहने और महरी से किराये की गाड़ी लाने को कहा। शीरी बेगम ने पूछा-आज सबेरे-सबेरे कहाँ जाने का इरादा है?

गुल—जरा छोटे साहब को सलाम करने जाना है।

शीरी—तो पैदल क्यों नही चले जाते ? कौन बडी दूर है।

गुल—जो बात तुम्हारी समझ मे न आये, उसमे जबान न खोला करो।

शीरी—पूछती तो हूँ पैदल चले जाने मे क्या हरज है ? गाड़ीवाला एक रुपये से कम न लेगा।

गुल—(हँसकर) हुक्काम किराया नहीं देते। उसकी हिम्मत है कि मुझसे किराया मांगे! चालान करवा दूं।

शीरी—तुम तो हाकिम भी नहीं हो, तुम्हे वह क्यों ले जाने लगा।

गुल—हाकिम कैसे नहीं हूँ? हाकिम के क्या सीम-पूंछ होती है, जो मेरे नही है? हाकिम का दोस्त हाकिम से कम रोब नहीं रखता। अहमक नही हूँ कि सौ काम छोड़कर हुक्काम की सलामी बजाया करता हूँ। यह इसी को बरक्त है कि पुलिस, माल, दीवानी के अहलकार मुझे झुक-झुककर सलाम करते है। थानेदार ने कल जो सौगात भेजी थी, वह किसलिए? मै उनका दामाद तो नही हूँ! सब मुझसे डरते है।

इतने में महरी एक तांगा लायी। वॉ साहब ने फौरन साफ़ा बॉधा और चले। शीरी ने कहा—अरे तो, पान तो खाते जाओ!

गुल—हाँ, लाओ हाथ मे मेहदी भी लगा दो। अरी नेकबख्त, हुक्काम के सामने पान खाकर जाना बेअदबी है।

शीरी—आओगे कब तक? खाना तो यही खाओगे!

गुल—तुम मेरे खाने की फिक्र न करना, शायद कुँअर साहब के यहाँ चला जाऊँ। कोई मुझे पूछे तो कहला देना, बड़े साहब से मिलने गये है।

खां साहब आकर ताँगे पर बैठे। ताँगेवाले ने पूछा—हुजूर कहाँ चलूँ?