मगर फुर्सत ही न मिलती थी। आज उनका आदमी जबर्दस्ती खींच ले गया। क्या करता, जाना ही पड़ा। कहाँ तक बेरुखी करूँ।
कुंअर—यार, तुम न जाने अफसरो पर क्या जादू कर देते हो कि जो आता है तुम्हारा दम भरने लगता है। मुझे वह मंत्र क्यों नहीं सिखा देते।
खॉ—मुझे खुद ही नहीं मालूम कि क्यो हुक्काम मुझ पर इतने मेहरबान रहते है। आपको यकीन न आवेगा, मेरी आवाज सुनते ही कमरे के दरवाजे पर आकर खड़े हो गये और ले जाकर अपनी खास कुर्सी पर बैठा दिया।
कुंअर—अपनी खास कुर्सी पर?
खाँ—हाँ साहब, हैरत मे आ गया, मगर बैठना ही पड़ा। फिर सिगार मंगवाया, इलाइची, मेवे, चाय सभी कुछ आ गये। यो कहिए कि खासी दावत हो गयी। यह मेहमानदारी देख कर मै दंग रह गया।
कुँअर—तो वह सब दोस्ती भी करना जानते है।
खाँ—अजी दूसरा क्या खा के दोस्ती करेगा। अब हद हो गयी कि मुझे अपने साथ नैनीताल चलने को मजबूर किया।
कुँअर—सच!
खाँ—कसम कुरान की। हैरान था कि क्या जवाब दूं। मगर जब देखा कि किसी तरह नहीं मानते, तो वादा करना ही पड़ा। आज ही के दिन कूच है।
कुँअर—क्यों यार, मै भी चला चलूं तो क्या हरज है?
खाँ—सुभानअल्लाह, इससे बढ़कर क्या बात होगी।
कुंअर—भई, लोग तरह-तरह की बाते करते है, इससे जाते डर लगता है। आप तो हो आये होगे?
खों—कई बार हो आया हूँ। हाँ, इधर कई साल से नहीं गया।
कुँअर—क्यों साहब, पहाड़ो पर चढ़ते-चढ़ते दम फूल जाता होगा?
राधाकान्त व्यास बोले—धर्मावतार, चढ़ने को तो किसी तरह चढ भी जाइए, पर पहाड़ों का पानी ऐसा खराब होता है कि एक बार लग गया तो प्राण ही लेकर छोडता है। बदरीनाथ की यात्रा करने जितने यात्री जाते है, उनमे बहुत कम जीते लौटते है और सग्रहणी तो प्रायः सभी को हो जाती है।
कुँअर—हॉ, सुना तो हमने भी है कि पहाडो का पानी बहुत लगता है। लाला सुखदयाल ने हामी भरी—गोसाईं जी ने भी तो पहाड़ के पानी की निन्दा की है—