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पर्वत-यात्रा
२०५
 


वाजिद—खुदावद, मजिलों के रास्ते में मुंडेर कैसी!

कुँअर—आदमी का काम तो नहीं है।

लाला—सुना वहाँ घेघा निकल आता है।

कुंअर—अरे भई, यह बुरा रोग है। तब मैं वहाँ जाने का नाम भी न लूंगा।

खाँ—आप लाला साहब से पूछे कि साहब लोग जो वहाँ रहते हैं, उनको घेधा क्यों नही हो जाता।

लाला—बह लोग ब्रांडी पीते है। हम और आप उनकी बराबरी कर सकते है भला। फिर उनका अकबाल!

वाजिद—मुझे तो यकीन नहीं आता कि खां साहब कभी नैनीताल गये हों। इस वक्त डीग मार रहे है। क्यों साहब, आप कितने दिन वहाँ रहे?

खाँ—कोई चार बरस तक रहा था।

बाजिद—आप वहाँ किस मुहल्ले में रहते थे?

खॉ—(गड़बड़ाकर) जी—मै।

वाजिद—आखिर आप चार बरस कहाँ रहे?

खाँ—देखिए याद आ जाय तो कहूँ।

वाजिद—जाइए भी। नैनीताल की सूरत तक तो देखी नहीं, गप हाँक दी कि वहाँ चार बरस तक रहे!

खाँ—अच्छा साहब, आप ही का कहना सही। मै कभी नैनीताल नही गया। बस अब सो खुश हुए।

कुँअर—आखिर आप क्यों नहीं बताते कि नैनीताल में आप कहाँ ठहरे थे।

वाजिद—कभी गये हों, तब न बताये।

खाँ—कह तो दिया कि मैं नही गया, चलिए छुट्टी हुई। अब आप फ़रमाइए कुंअर साहब, आपको चलना है या नहीं? ये लोग जो कहते हैं सब ठीक। वहाँ घेधा निकल आता है, वहाँ का पानी इतना खराब कि खाना बिलकुल नही हजम होता, वहाँ हर रोज़ दस-पांच आदमी खड्ड में गिरा करते हैं। अब आप क्या फैसला करते है? वहाँ जो मजे है वह यहां ख्वाब मे भी नहीं मिल सकते। जिन हुक्काम के दरवाजे पर घटों खड़े रहने पर भी मुलाकात नहीं होती, उनसे वहाँ चौबीसो घटो का साथ रहेगा। मिसो के साथ झील में सैर करने का मजा अगर मिल सकता है तो वहीं। अजी सैकड़ों अंग्रेजों से दोस्ती हो जायगी। तीन महीने वहाँ