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गुप्त धन
 

सईद—जरीना, गुस्सा न दिलाओ, मैं कहता हूँ, अब इन्हें माफ़ करो।

जरीना ने सईद को ऐसी हिकारतभरी आँखों से देखा गोया वह उसका गुलाम है। खुदा जाने उस पर उसने क्या मन्तर मार दिया था कि उसमे खानदानी गैरत और बड़ाई और इन्सानियत का जरा भी एहसास बाक़ी न रहा था। वह शायद उसे गुस्से जैसे मर्दाना जज्बे के काबिल ही न समझती थी। हुलिया पहचाननेवाले कितनी गलती करते है क्योकि दिखायी कुछ पड़ता है, अन्दर कुछ और होता है! बाहर के ऐसे सुन्दर रूप के परदे मे इतनी बेरहमी, इतनी निष्ठुरता! कोई शक नहीं, रूप हुलिया पहचानने की विद्या का दुश्मन है। बोली—अच्छा तो अब आपको मुझ पर गुस्सा आने लगा। क्यों न हो, आखिर निकाह तो आपने बेगम ही से किया है। मै तो हया-फरोश कुतिया ही ठहरी!

सईद—तुम ताने देती हो और मुझसे यह खून नही देखा जाता।

जरीना—तो यह कमची हाथ में लो, और इसे गिनकर सौ लगाओ। गुस्सा उतर जायगा, इसका यही इलाज है।

सईद—फिर वही मजाक।

जरीना—नहीं, मैं मजाक नहीं करती।

सईद ने कमची लेने को हाथ बढाया मगर मालूम नही जरीना को क्या शुबहा पैदा हुआ, उसने समझा शायद यह कमची को तोड़कर फेंक देगे। कमची हटा ली और बोली—अच्छा मुझसे यह दगा! तो लो अब मैं ही हाथो की सफाई दिखाती हूँ। यह कहकर उस बेदर्द ने मुझे बेतहाशा कमचियां मारना शुरू की। मै दर्द से ऐंठऐठकर चीख रही थी। उसके पैरों पड़ती थी, मिन्नते करती थी, अपने किये पर शर्मिन्दा थी, दुआएँ देती थी, पौर और पैगम्बर का वास्ता देती थी, पर उस कातिल को जरा भी रहम न आता था। सईद काठ के पुतले की तरह दर्दोसितम का यह नजारा आँखों से देख रहा था और उसको जोश न आता था। शायद मेरा बड़े से बड़ा दुश्मन भी मेरे रोने-धोने पर तरस खाता। मेरी पीठ छिलकर लहू-लुहान हो गयी, जखम पड़ते थे, हरेक चोट आग के शोले की तरह बदन पर लगती थी। मालूम नही उसने मुझे कितने दुरे लगाये यहाँ तक कि कमची को मुझ पर रहम आ गया, वह फटकर टूट गयी। लकड़ी का कलेजा फट गया मगर इन्सान का दिल न पिघला।

मुझे इस तरह जलील और तबाह करके तीनों ख़बीस राहें वहाँ से रुखसत हो