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गुप्त पत
 


काटन—ओह! तुम यह क्या बोलता है। वह तो हमारे साथ नैनीताल जाने-वाला था। उसने हमको खत लिखा था।

वाजिद—हाँ, हुजूर, जानेवाले तो थे, पर बीमार हो गये।

काटन—बहुत रज हुआ।

वाजिद—हुजूर इत्तफाक है।

काटन—हमको बहुत अफसोस है। कुँअर साहब से जाकर बोलो, हम उनको देखना मॉगता है।

वाजिद—हुजूर, बाहर नही आ सकते।

काटन—कुछ परबा नहीं, हम अदर जाकर देखेगा।

कुँअर साहब दरवाजे से चिमटे हुए काटन साह्न की बाते सुन रहे थे। नीचे की सॉस नीचे थी, ऊपर की ऊपर। काटन साहब को घोडे से उतरकर दरवाजे की तरफ आते देखा, तो गिरते-पडते दौड़े और सुशीला से बोले—दुष्ट मुझे देखने घर मे आ रहा है । मै चारपाई पर लेट जाता हूँ, चटपट लिहाफ निकलवाओ और मुझे ओढ़ा दो। दस पाँच शीशियाँ लाकर इस गोलमेज पर रखवा दो।

इतने में वाजिदअली ने द्वार खटखटाकर कहा—महरी, जरा दरवाजा खोल दो, साहब बहादुर कुँअर साहब को देखना चाहते है। सुशीला ने लिहाफ मॉगा, यर गर्मी के दिन थे, जाडे के कपडे सन्दूकों में बन्द पडे थे। चटपट सन्दूक खोलकर दो-तीन मोटे-मोटे लिहाफ लाकर कुँअर साहब को ओढा दिये। फिर आलमारी से कई शीशियाँ और कई बोतल निकालकर मेज पर चुन दिये और महरी से कहा-जाकर किवाड खोल दो, मैं ऊपर चली जाती हूँ।

काटन साहब ज्यों ही कमरे मे पहुँचे, कुंअर साहब ने लिहाफ से मुंह निकाल लिया और कराहते हुए बोले—बड़ा कष्ट है हुजूर। सारा शरीर फुका जाता है।

काटन—आप दोपहर तक तो अच्छा था, खाँ साहब हमसे कहता था कि आप तैयार हैं, कहाँ दरद है?

कुँअर—हुजूर, पेट में बहुत दर्द है। बस यही मालूम होता है कि दम निकाल जायगा।

काटन—हम जाकर सिविल सर्जन को भेज देता है। वह पेट का दर्द अभी अच्छा कर देगा। आप घबरायें नहीं, सिविल सर्जन हमारा दोस्त है।

काटन चला गया तो कुँअर साहब फिर बाहर आ बैठे। रोजा बख्शाने गये थे, नमाज गले पड़ी। अब यह फिक्र पैदा हुई कि सिविल सर्जन को कैसे टाला जाय।