पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२०८

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कवच


बहुत दिनो की बात है, मै एक बडी रियासत का एक विश्वस्त अधिकारी था। जैसी मेरी आदत है, मै रियासत की घडेबन्दियो से पृथक रहता, न इधर, न उधर, अपने काम से काम रखता। काजी की तरह शहर के अदेशे से दुबला न होता था। महल मे आये दिन नये-नये शिगूफे खिलते रहते थे, नये-नये तमाशे होते रहते थे, नये-नये षड्यन्त्रो की रचना होती रहती थी, पर मुझे किसी पक्ष से सरोकार न था। किसी की बात में दखल न देता था, न किसी की शिकायत करता, न किसी की तारीफ। शायद इसीलिए राजा साहब की मुझ पर कृपादृष्टि रहती थी। राजा साहब शीलवान, दयालु, निर्भीक, उदार और कुछ स्वेच्छाचारी थे। रेजीडेण्ट की खुशामद करना उन्हे पसन्द न था। जिन समाचारपत्रो से दूसरी रियासते भयभीत रहती थी और अपने इलाके मे उन्हें आने न देती थी, वे सब हमारी रियासत मे बेरोक-टोक आते थे। एक-दो बार रेजीडेण्ट ने इस बारे मे कुछ इशारा भी किया था, लेकिन राजा साहब ने इसकी बिलकुल परवा न की। अपने आन्तरिक शासन में वह किसी प्रकार का हस्तक्षेप न चाहते थे, इसीलिए रेजीडेण्ट भी उनसे मन ही मन द्वेष करता था।

लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि राजा साहव प्रजावत्सल, दूरदर्शी, नीति-कुशल या मितव्ययी शासक थे। यह बात न थी। बे बडे ही विलासप्रिय, रसिक और दुर्व्यसनी थे। उनका अधिकाश समय विषय-वासना की ही भेट होता था। रनवास में दर्जनों रानियों थी, फिर भी आये दिन नयी-नयी चिड़ियाँ आती रहती थीं। इस मद मे लेशमात्र भी किफायत या कजूसी न की जाती थी। सौन्दर्य की उपासना उनका गौण स्वभाव-सा हो गया था। इसके लिए वह दीन और ईमान तक की हत्या करने को तैयार रहते थे। वे स्वच्छन्द रहना चाहते थे, और चूंकि सरकार उन्हे बन्धनों में डालना चाहती थी, वे उन्हें चिढाने के लिए ऐसे मामले मे असाधारण अनुराग और उत्साह दिखाते थे, जिनमें उन्हे प्रजा की सहायता और सहानुभूति का पूरा विश्वास होता था, इसीलिए प्रजा उनके दुर्गुणों को भी सद्गुण' समझती थी, और अखबारवाले भी सदैव उनकी निर्भीकता और प्रजा-प्रेम के राग अलापते रहते थे।