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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२१

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इजजत का खून
२५
 

गयी। सईद के नौकर ने चलते वक्त मेरी रस्सियों खोल दी । मै कहाँ जाती? उस घर मे क्योंकर कदम रखती?

मेरा सारा जिस्म नासूर हो रहा था लेकिन दिल के फफोले उससे कहीं ज्यादा जानलेवा थे। सारा दिल फफोलो से भर उठा था। अच्छी भावनाओ के लिए जगह भी बाकी न रही थी। उस दक्त मैं किसी अधे को कुएं में गिरते देखती तो मुझे हंसी आती, किसी यतीम का दर्दनाक रोना सुनती तो उसको मुंह चिढाती। दिल की हालत में एक जबर्दस्त इन्कलाब हो गया था। मुझे गुस्सा न था, गम न था, मौत की आरजू न थी, यहाँ तक कि बदला लेने की भावना भी न थी। उस इन्तहाई जिल्लत ने बदला लेने की इच्छा को भी खत्म कर दिया था। हालांकि मैं चाहती तो कानूनन् सईद को शिकजे मे ला सकती थी, उसे दाने-दाने के लिए तरसा सकती थी लेकिन यह बेइज्जती, यह बेआबरूई, यह पामाली बदले के खयाल के दायरे से बाहर थी। बस सिर्फ एक चेतना बाकी थी और वह अपमान की चेतना थी। मैं हमेशा के लिए जलील हो गयी। क्या यह दाग किसी तरह मिट सकता था? हरगिज नहीं। हाँ वह छिपाया जा सकता था और उसकी एक ही सूरत थी कि जिल्लत के काले गड्ढे में गिर पड़ू ताकि सारे कपडो को सियाही इस सियाह दाग को छिपा दे। क्या इस घर से बियाबान अच्छा नहीं, जिसकी दीवारे टूटकर ढेर हो गयी हो? इस किश्ती से क्या पानी की सतह अच्छी नहीं जिसके पेदे मे एक बड़ा छेद हो गया हो? इस हालत मे यही दलील मुझ पर छा गयी। मैने अपनी तबाही को और भी मुकम्मल, अपनी जिल्लत को और भी गहरा, अपने काले चेहरे को और भी काला करने का पक्का इरादा कर लिया। मै अनजान में ही सईद से नैतिक रूप से बदला लेने पर आमादा हो गयी। रात भर मै वहीं पडी कभी दर्द से कराहती और कभी इन्ही खयालात मे उलझती रही। यह घातक इरादा हर क्षण मजबूत से और भी मजबूत होता जाता था। घर में किसी ने मेरी खबर न ली। पौ फटते ही मैं बागीचे से बाहर निकल आयी, मालूम नही मेरी लाज-शर्म कहाँ गायब हो गयी थी। जो शख्स समुन्दर मे ग्रोते खा चुका हो उसे ताल-तलैयो का क्या डर? मैं जो दरोदीवार से शर्माती थी, इस वक्त शहर की गलियों मे बेघड़क चली जा रही थी—और कहाँ? वही जहाँ जिल्लत की कद्र है, जहाँ किसी पर कोई हँसने वाला नहीं, जहाँ बदनामी का बाजार सजा हुआ है, जहाँ हया बिकती है और शर्म लुटती है!

इसके तीसरे दिन रूप की मण्डी के एक अच्छे हिस्से मे एक ऊँचे कोठे पर बैठी