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गुप्त धन
 


'ईश्वर ने चाहा तो हुजूर को शिकायत का कोई मौका न मिलेगा।'

'ईश्वर का नाम न लो, ईश्वर ऐसे मौके के लिए नहीं है। ईश्वर की मदद उस वक्त माँगो, जब अपना दिल कमजोर हो। जिसकी बाँहो मे शक्ति, मन मे सकल्प, बुद्धि मे बल, और साहस है, वह ईश्वर का आश्रय क्यो ले? अच्छा जाओ और जल्द सुर्खरू होकर लौटो, आँखे तुम्हारी तरफ लगी रहेंगी।'

मैने आत्मा की आलोचनाओ को सिर तक न उठाने दिया। उस दुष्ट को क्या अधिकार था कि वह सरफराज से ऐसा कुत्सित सम्बन्ध रखे, जब उसे मालूम था कि राजा साहब ने उसे अपने हरम मे दाखिल कर लिया है? यह लगभग उतना ही गर्हित अपराध है, जितना किसी विवाहिता स्त्री को भगा ले जाना। सरफराज एक प्रकार से विवाहिता है, ऐसी स्त्री से पत्र-व्यवहार करना और उस पर डोरे डालना किसी दशा में भी क्षम्य नहीं हो सकता। ऐसे सगीन अपराध की सजा भी उतनी ही सगीन होनी चाहिए। अगर मेरे हृदय मे उस वक्त तक कुछ दुर्बलता, कुछ सशय, कुछ अविश्वास था, तो इस तर्क ने उसे दूर कर दिया। सत्य का विश्वास सत्-साहस का मंत्र है। अब वह खून मेरी नजरो मे पापमय हत्या नहीं, जायज खून था और उससे मुंह मोडना लज्जाजनक कायरता।

गाडी के जाने में अभी दो घण्टे की देर थी। रात भर का सफ़र था, लेकिन भोजन की ओर बिलकुल रुचि न थी। मैंने सफर की तैयारी शुरू की। बाजार से एक नकली दाढ़ी लाया, ट्रक मे दो रिवालवर रख लिये, फिर सोचने लगा, किसे अपने साथ ले चलूं ? यहाँ से किसी को ले जाना तो नीति-विरुद्ध है। फिर क्या अपने भाई साहब को तार दूं? हाँ, यही उचित है। उन्हें लिख दूं कि मुझसे बम्बई मे आकर मिले, लेकिन नही, भाई साहब को क्यों फंसाऊँ? कौन जाने क्या हो? बम्बई में ऐसे आदमी की क्या कमी? एक लाख रुपये का लालच दूंगा। चुटकियों में काम हो जायगा। वहाँ एक से एक शातिर पडे है, जो चाहें तो फरिश्तो का भी खून कर आयें। बस, इन महाशय को किसी हिकमत से किसी वेश्या के कमरे में बुलाया जाय और वहीं उनका काम तमाम कर दिया जाय। या समुद्र के किनारे जब वह हवा खाने निकले, तो वही मारकर लाश समुद्र मे डाल दी जाय।

अभी चूंकि देर थी, मैने सोचा, लाओ सन्ध्या कर लूँ। ज्योही सन्ध्या के कमरे में कदम रखा, माता जी के तिरगे चित्र पर नजर पड़ी। मै मूर्तिपूजक नही