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कवच
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हूँ, धर्म की और मेरी प्रवृत्ति भी नहीं है, न कभी कोई व्रत रखता हूँ, लेकिन न जाने क्यों, उस चित्र को देखकर अपनी आत्मा मे एक प्रकाश का अनुभव करता हूँ। उन आँखो मे मुझे अब भी वही वात्सल्यमय ज्योति, वही दैवी आशीर्वाद मिलता है, जिसकी बाल-स्मृति अब भी मेरे हृदय को गद्गद कर देती है। वह चित्र मेरे लिए चित्र नहीं, बल्कि सजीव प्रतिमा है, जिसने मेरी सृष्टि की है और अब भी मुझे जीवन प्रदान कर रही है। उस चित्र को देखकर मै यकायक चौक पडा, जैसे कोई आदमी उस वक्त चोर के कंधे पर हाथ रख दे जब वह सेव मार रहा हो। इस चित्र को रोज ही देखा करता था, दिन मे कई बार उस पर निगाह पड़ती थी, पर आज मेरे मन की जो दशा हुई, वह कभी न हुई थी। मालूम हुआ कि वह आँखे मुझे धिक्कार रही है। उनमे कितनी वेदना थी, कितनी लज्जा और कितना क्रोध! मानो वह कह रही थी, मुझे तुझसे ऐसी आशा न थी। मै उस तरफ़ ताक न सका। फौरन आँखे झुका ली। उन आँखो के सामने खडे होने की हिम्मत मुझे न हुई। वह तसवीर की आँखे न थीं, सजीव, तीव्र और ज्वालामय, हृदय मे पैठनेवाली, नोकदार भालेकी तरह हृदय मे चुभनेवाली आँखे थी। मुझे ऐसा मालूम हुआ, गिर पडूंगा। मै वही फर्श पर बैठ गया। मेरा सिर आप ही आप झुक गया। बिलकुल अज्ञातरूप से मानो किसी दैवी प्रेरणा से मेरे सकल्प मे एक क्रान्ति-सी हो गयी। उस सत्य के पुतले, उस प्रकाश की प्रतिमा ने मेरी आत्मा को सजग कर दिया। मन मे क्या-क्या भाव उत्पन्न हुए, क्या-क्या विचार उठे, इसकी मुझे खबर नही। इतना ही जानता हूँ कि मै एक सम्मोहित दशा मे घर से निकला, मोटर तैयार करायी और दस बजे राजा साहब की सेवा में जा पहुंचा। मेरे लिए उन्होने विशेषरूप से ताकीद कर दी थी कि जिस वक्त चाहूँ, उनसे मिल सकू। कोई अड़चन न पड़ी। मै जाकर नम्र भाव से बोला—हुजूर, कुछ अर्ज करना चाहता हूँ।

राजा साहब अपने विचार मे इस समस्या को सुलझाकर इस वक्त इत्मीनान की सॉस ले रहे थे। मुझे देखकर उन्हें किसी नयी उलझन का सन्देह हुआ। त्योरियों पर बल पड़ गये, मगर एक ही क्षण मे नीति ने विजय पायी, मुसकराकर बोले—हॉ हाँ, कहिए, कोई खास बात?

मैने निर्भीक होकर कहा—मुझे क्षमा कीजिए, मुझसे यह काम न होगा। राजा साहब का चेहरा पीला पड़ गया, मेरी ओर विस्मय से देखकर बोले—इसका मतलब?

'मैं यह काम न कर सकूँगा।'