पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सौत
२२९
 


रहे और मै घर का सारा काम करती रहूँ। इतने दिनो छाती फाडकर काम किया, उसका यह फल मिला, तो अब मेरी बला काम करने जाती है।

'मैं जैसे रखूँगा, वैसे ही तुझे रहना पडेगा।'

'मेरी इच्छा होगी रहूँगी, नही अलग हो जाऊँगी।'

'जो तेरी इच्छा हो, कर, मेरा गला छोड़।'

'अच्छी बात है। आज से तेरा गला छोडती हूँ। समझ लूंगी, विधवा हो गयी।'

रामू दिल मे इतना तो समझता था कि यह गृहस्थी रजिया की जोडी हुई है, चाहे उसके रूप मे उसके लोचन-विलास के लिए आकर्षण न हो। सम्भव था, कुछ देर के बाद वह जाकर रजिया को मना लेता, पर दासी भी कूटनीति मे कुशल थी। उसने गर्म लोहे पर चोटे जमाना शुरू की। बोली—आज देवी जी किस बात पर बिगड़ रही थी?

रामू ने उदास मन से कहा—तेरी चुंदरी के पीछे रजिया महाभारत मचाये हुए है। अब कहती है, अलग रहूँगी। मैने कह दिया, तेरी जो इच्छा हो कर।

दसिया ने आँखे मटकाकर कहा—यह सब नखरे है कि आकर हाथ-पॉव जोडे, मनावन करे, और कुछ नहीं। तुम चुपचाप बैठे रहो। दो चार दिन मे आप ही गरमी उतर जायगी। तुम कुछ बोलना नहीं, नहीं उनका मिजाज और आसमान पर चढ़ जायगा।

रामू ने गम्भीर भाव से कहा दासी, तुम जानती नही हो, वह कितनी घमडिन है। वह मुंह से जो बात कहती है, उसे करके छोडती है।

रजिया को भी रामू से ऐसी कृतघ्नता की आशा न थी। वह अब पहले को-सी सुन्दरी नहीं, इसलिए रामू को अब उससे प्रेम नही है! पुरुष-चरित्र मे यह कोई असाधारण बात न थी, लेकिन रामू उससे अलग रहेगा, इसका उसे विश्वास न आता था। यह घर उसी ने पैसा-पैसा जोडकर बनवाया। गृहस्थी भी उसी की जोड़ी हुई है। अनाज का लेन-देन उसी ने शुरू किया। इस घर मे आकर उसने कौन-कौन से कष्ट नहीं झेले, इसीलिए तो कि पौरुख थक जाने पर एक टुकडा चैन से खायगी और पड़ी रहेगी, और आज वह इतनी निर्दयता से दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेक दी गयी! रामू ने इतना भी नहीं कहा—तू अलग नहीं रहने पायेगी। मै या खुद मर जाऊँगा या तुझे मार डालूंगा, पर तुझे अलग न होने दूंगा। तुझसे मेरा ब्याह हुआ है। हँसी-ठट्ठा नहीं है। तो जब रामू को उसकी परवाह