पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३०
गुप्त धन
 


नहीं है, तो वह रामू की क्यों परवाह करे? क्या सभी स्त्रियों के पुरुष बैठे होते हैं? सभी के मॉ-बाप, बेटे-पोते होते हैं? आज उसके लड़के जीते होते, तो मजाल थी कि यह नयी स्त्री लाते, और मेरी यह दुर्गति करते? इस निर्दयी को मेरे ऊपर इतनी भी दया नही आयी!

नारी-हृदय की सारी परबशता इस अत्याचार से विद्रोह करने लगी। वही आग जो मोटी लकड़ी को स्पर्श भी नहीं कर सकती, फूस को जलाकर भस्म कर देती है।

दूसरे दिन रजिया एक दूसरे गाँव मे चली गयी। उसने अपने साथ कुछ न लिया। जो साड़ी उसकी देह पर थी, वही उसकी सारी सम्पत्ति थी। विधाता ने उसके बालकों को पहले ही छीन लिया था! आज घर भी छीन लिया!

रामू उस समय दासी के साथ बैठा हुआ आमोद-विनोद कर रहा था। रजिया को जाते देखकर शायद वह समझ न सका कि वह चली जा रही है। रजिया ने यही समझा। इस तरह चोरो की भाँति वह जाना भी न चाहती थी। वह दासी को, उसके पति को और सारे गॉव को दिखा देना चाहती थी कि वह इस घर से धेले की भी चीज नहीं ले जा रही है। गाँववालों की दृष्टि मे रामू का अपमान करना ही उसका लक्ष्य था। उसके चुपचाप चले जाने से तो कुछ भी न होगा। रामू उलटा सबसे कहेगा, रजिया घर की सारी सम्पदा उठा ले गयी।

उसने रामू को पुकारकर कहा सम्हालो अपना घर। मै जाती हूँ। तुम्हारे घर की कोई भी चीज अपने साथ नहीं ले जाती।

रामू एक क्षण के लिए कर्तव्य-भ्रष्ट हो गया। क्या कहे, उसकी समझ मे न आया। उसे आशा न थी कि वह यों जायगी। उसने सोचा था, जब वह घर ढोकर ले जाने लगेगी, तब वह गाँववालो को दिखाकर उनकी सहानुभूति प्राप्त करेगा। अब क्या करे।

दसिया बोली—जाकर गाँव में ढिंढोरा पीट आयो। यहाँ किसी का डर नहीं है। तुम अपने घर से ले ही क्या आयी थीं, जो कुछ लेकर जाओगी।

रजिया ने उसके मुँह न लगकर रामू ही से कहा—सुनते हो, अपनी चहेती की बातें। फिर भी मुंह नहीं खुलता। मै तो जाती हूँ, लेकिन दस्सो रानी, तुम