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सौत
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भी बहुत दिन राज न करोगी! ईश्वर के दरबार में अन्याय नहीं फलता। वह बड़े-बडे धमड़ियों का घमंड चूर कर देते है।

दसिया ठट्ठा मारकर हँसी, पर रामू ने सिर झुका लिया। रजिया चली गयी।

रजिया जिस नये गाँव में आयी थी, वह रामू के गाँव से मिला ही हुआ था, अतएव यहाँ के लोग उससे परिचित है। वह कैसी कुशल गृहिणी है, कैसी मेहनती, कैसी बात की सच्ची, यह यहाँ किसी से छिपा न था। रजिया को मजूरी मिलने में कोई बाधा न हुई। जो एक लेकर दो का काम करे, उसे काम की क्या कमी?

तीन साल तक रजिया ने कैसे काटे, कैसे एक नयी गृहस्थी बनायी, कैसे खेती शुरू की, इसका बयान करने बैठे, तो पोथी हो जाय। सचय के जितने मन्त्र हैं,जितने साधन है, वे रजिया को खूब मालूम थे। फिर अब उसे लाग हो गयी थी और लाग में आदमी की शक्ति का बारापार नहीं रहता। गांववाले उसका परिश्रम देखकर दाँतों उँगली दबाते थे। वह रामू को दिखा देना चाहती है—मैं तुझसे अलग होकर भी आराम से रह सकती हूँ। वह अब पराधीन नारी नही है। अपनी कमाई खाती है।

रजिया के पास बैलो की एक अच्छी जोडी है। रजिया उन्हें केवल खली- भूसी देकर नहीं रह जाती, रोज़ दो-दो रोटियाँ भी खिलाती है। फिर उन्हे घटों सहलाती है। कभी-कभी उनके कंधों पर सिर रखकर रोती है, और कहती है, अब बेटे हो तो, पति हो तो तुम्ही हो । मेरी लाज अब तुम्हारे ही हाथ है। दोनों बैल शायद रजिया की भाषा और भाव समझते है। वे मनुष्य नही, बैल है। दोनों सिर नीचा करके रजिया का हाथ चाटकर उसे आश्वासन देते है! वे उसे देखते ही कितने प्रेम से उसकी ओर ताकने लगते है, कितने हर्ष से कधा झुलाकर उस पर जुवा रखवाते है और कैसा जी तोड़ काम करते है, यह वे ही लोग समझ सकते है, जिन्होंने बैलों की सेवा की है और उनके हृदय को अपनाया है।

रजिया इस गाँव की चौधराइन है। उसकी बुद्धि जो पहिले नित्य आधार खोजती रहती थी और स्वच्छन्द रूप से अपना विकास न कर सकती थी, अब छाया से निकलकर प्रौढ़ और उन्नत गयी है।