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गुप्त धन
 


एक दिन रजिया घर लौटी, तो एक आदमी ने कहा चौधराइन, रामू तो बहुत बीमार है। सुना दस लघन हो गये है।

रजिया ने उदासीनता से कहा—जूडी है क्या?

'जूडी नहीं, कोई दूसरा रोग है। बाहर खाट पर पड़ा था। मैंने पूछा, कैसा जी है रामू? तो रोने लगा। बुरा हाल है। घर में एक पैसा भी नहीं कि दवा-दारू करे। दसिया के एक लडका हुआ है। वह तो पहले भी काम-धन्धा न करती थी और अब तो लडकोरी है, कैसे काम करने जाय। सारी मार रामू के सिर जाती है। फिर गहने चाहिए, कपडे चाहिए, नयी दुलहिन यों कैसे रहे।'

रजिया ने घर में जाते हुए कहा—जो जैसा करेगा, आप भोगेगा।

लेकिन अन्दर उसका जी न लगा। वह एक क्षण मे फिर बाहर आयी। शायद उस आदमी से कुछ पूछना चाहती थी और इस अन्दाज से पूछना चाहती थी, मानो उसे कुछ परवाह नहीं है।

पर वह आदमी चला गया था। रजिया ने पूरब-पच्छिम जा-जाकर देखा। वह कही न मिला। तब रजिया द्वार के चौखट पर बैठ गयी। उसे वे शब्द याद आये, जो उसने तीन साल पहले रामू के घर से चलते समय कहे थे। उस वक्त जलन में उसने बह शाप दिया था। अब वह जलन न थी। समय ने उसे बहुत कुछ शान्त कर दिया था। रामू और दासी की हीनावस्था अब ईर्ष्या के योग्य नहीं, दया के योग्य थी।

उसने सोचा, रामू को दस लधन हो गये है, तो अवश्य ही उसकी दशा अच्छी न होगी। कुछ ऐसा मोटा-ताजा तो पहले भी न था, दस लघन ने तो बिलकुल ही घुला डाला होगा। फिर इधर खेती-बारी में भी टोटा ही रहा। खाने-पीनेको भी ठीक-ठीक न मिला होगा......

पडोस की एक स्त्री ने आग लेने के बहाने आकर पूछा—सुना, रामू बहुत बीमार है। जो जैसा करेगा, वैसा पायेगा। तुम्हे इतनी बेदर्दी से निकाला कि कोई अपने बैरी को भी न निकालेगा।

रजिया ने टोका—नही दीदी, ऐसी बात न थी। वे तो बेबारे कुछ बोले ही नहीं। मै चली तो सिर झुका लिया। दसिया के कहने में आकर वह चाहे जो कुछ कर बैठे हो, यो मुझे कभी कुछ नहीं कहा। किसी की बुराई क्यो करूं। फिर कौन मर्द ऐसा है जो औरतों के बस नहीं हो जाता। दसिया के कारण उनकी यह दसा हुई है।