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गुप्त धन
 


आदमी के पास जा रही हूँ, जिसके साथ पन्द्रह-बीस साल रही हूँ। दसिया नाक सिकोड़ेगी। सिकोडे। मुझे उससे क्या मतलब।

रजिया ने किवाड बंद किये, घर मजूर को सहेजा, और रामू को देखने चली, कॉपती, झिझकती, क्षमा का दान लिये हुए।

रामू को थोड़े ही दिनों मे मालूम हो गया कि उसके घर की आत्मा निकल गयी है, और वह चाहे कितना जोर करे, कितना ही सिर खपाये, उसमें स्फूर्ति नहीं आती। दासी सुन्दरी थी, शौकीन थी और फूहड थी। जब पहला नशा उतरा, तो ठॉय ठॉय शुरू हुई। खेती की उपज कम होने लगी, और जो होती भी थी, वह ऊटपटॉग खर्च होती थी। ऋण लेना पडता था। इसी चिन्ता और शोक में उसका स्वास्थ्य बिगडने लगा। शुरू में कुछ परवाह न की। परवाह करके ही क्या करता। पर मे पैसे न थे। अताइयों की चिकित्सा ने बीमारी की जड़ और मजबूत कर दी और आज दस-बारह दिन से उसका दाना-पानी छूट गया था। मौत के इंतजार में ग्वाट पर पडा कराह रहा था। और अब वह दशा हो गयी थी जब हम भविष्य से निश्चिन्त होकर अतीत में विश्राम करते है, जैसे कोई गाड़ी आगे का रास्ता बन्द पाकर पीछे लौटे। रजिया को याद करके वह बार-बार रोता और दासी को कोसता-तेरेही कारण मैंने उसे घर से निकाला। वह क्या गयी, लक्ष्मी चली गयी। मैं जानता हूँ, अब भी बुलाऊँ तो दौडी आयेगी, लेकिन बुलाऊँ किस मुंह से! एक बार वह आ जाती और उससे अपने अपराध क्षमा करा लेना, फिर मै खुशी से मरता। और लालसा नही है।

सहसा रजिया ने आकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए पूछा—कैसा जो है तुम्हारा? मुझे तो आज हाल मिला।

रामू ने सजल नेत्रों से उसे देखा, पर कुछ कह न सका। दोनों हाथ जोडकर उमे प्रणाम किया, पर हाथ जुड़े ही रह गये, और आँख उलट गयी।

लाश घर में पड़ी थी। रजिया रोती थी, दसिया चिन्तित थी। घर में रुपये का नाम नहीं। लकड़ी तो चाहिए ही, उठानेवाले भी जलपान करेंगे ही, कफ़न के बगैर लाश उठेगी कैसे। दस से कम का खर्च न था। यहाँ घर में दस पैसे