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सौत
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भी नहीं । डर रही थी कि आज गहनों पर आफ़त आयी। ऐसे कीमती भारी गहने ही कौन थे। किसान की बिसात ही क्या, दो-तीन नग बेचने से दस मिल जायेंगे। मगर और हो ही क्या सकता है। उसने चौधरी के लड़के को बुलाकर कहा—देवर जी, यह बेड़ा कैसे पार लगे! गाँव मे कोई घेले का भी विश्वास करनेवाला नहीं। मेरे गहने है। चौधरी से कहो, इन्हे गिरों रखकर आज का काम चलाये, फिर भगवान मालिक है।

'रजिया से क्यों नहीं मांग लेती?'

सहसा रजिया ऑखे पोंछती हुई आ निकली। कान मे भनक पडी। पूछा—क्या है जोखू, क्या सलाह कर रहे हो ? अब मिट्टी उठाओगे कि सलाह की बेला है?

'हाँ उसी का सराजाम कर रहा हूँ।'

'रुपये-पैसे तो यहाँ होगे नही। बीमारी में खरच हो गये होगे। इस बेचारी को तो उन्होने बीच मझधार मे लाकर छोड दिया। तुम लपककर उस घर चले जाओ भैया! कौन दूर है, कुजी लेते जाओ। मजूर से कहना, भडार से पचास रुपया निकाल दे। कहना, ऊपर की पटरी पर रखे है।

वह तो कुंजी लेकर उधर गया, इधर दसिया राजो के पैर पकडकर रोने लगी। बहनापे के ये शब्द उसके हृदय में बैठ गये। उसने देखा, रजिया मे कितनी दया, कितनी क्षमा है।

रजिया ने उसे छाती से लगाकर कहा—क्यों रोती है बहन? वह चला गया मै तो हूँ। किसी बात की चिन्ता न कर। इसी घर मे हम और तुम दोनों उसके नाम पर बैठेगी। मै वहाँ भी देखूगी यहाँ भी देखूगी। धाप भर की बात ही क्या? कोई तुमसे गहने-पाते माँगे तो मत देना।

दसिया का जी होता था सिर पटककर मर जाय। इसे उसने कितना जलाया, कितना रुलाया और घर से निकालकर छोड़ा।

रजिया ने पूछा—जिस-जिस के रुपये हों, सुरत करके मुझे बता देना। मैं झगड़ा नही रखना चाहती। बच्चा दुबला क्यों हो रहा है?

दसिया बोली—मेरे दूध होता ही नहीं। गाय जो तुम छोड गयी थी, वह मर गयी। दूध नहीं पाता।

'राम राम! बेचारा मुरझा गया। मैं कल ही गाय लाऊँगी। सभी गृहस्थी उठा लाऊँगी। वहाँ क्या रक्खा है।'