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गुप्त धन
 


लाश घूम से उठी। रजिया उसके साथ गयी! दाहकर्म किया। भोज हुआ। कोई दो सौ रुपये खर्च हो गये। किसी से मॉगने न पड़े।

दसिया के जौहर भी इस त्याग की आँच मे निकल आये। बिलासिनी सेवा की मूर्ति बन गयी।

आज रामू को मरे सात साल हुए है। रजिया घर सम्हाले हुए है। दसिया को वह सौत नही, बेटी समझती है। पहले उसे पहनाकर तब आप पहनती है। उसे खिलाकर आप खाती है। जोखू पढने जाता है। उसकी सगाई की बातचीत पक्की हो गयी है। इस जाति मे बचपन मे ही ब्याह हो जाता है। दसिया ने कहा—बहन, गहने बनवाकर क्या करोगी। मेरे गहने तो धरे ही है।

रजिया ने कहा—नही री, उसके लिए नये गहने बनवाऊँगी। अभी तो मेरा हाथ चलता है। जब थक जाऊँ, तो जो चाहे करना। तेरे अभी पहनने-ओढने के दिन हैं, तू अपने गहने रहने दे।

नाइन ठकुरसोहाती करके बोली—आज जोखू के बाप होते, तो कुछ और ही बात होती।

रजिया ने कहा—वे नहीं है, तो मै तो हूँ। वे जितना करते, मै उसका दूना करूंगी। जब मैं मर जाऊँ, तब कहना जोखू का बाप नही है!

ब्याह के दिन दसिया को रोते देखकर रजिया ने कहा—बहू, तुम क्यो रोती हो? अभी तो मै जीती हूँ। घर तुम्हारा है। जैसे चाहो रहो। मुझे एक रोटी दे दो, बस। और मुझे क्या करना है। मेरा आदमी मर गया। तुम्हारा तो अभी जीता है।

दसिया ने उसकी गोद में सिर रख दिया और खूब रोई—जीजी, तुम मेरी माता हो। तुम न होती, तो मै किसके द्वार पर खड़ी होती। घर मे तो चूहे लोटते थे। उनके राज मे मुझे दुख ही दुख उठाने पडे। सोहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज मे मिला। मै दुख से नहीं रोती, रोती हूँ भगवान की दया पर कि कहाँ मै और कहाँ यह खुसियाली!

रजिया मुस्कराकर रो दी।

-विशाल भारत, दिसबर १९३१