देवी
बूढो में जो एक तरह की बच्चो की-सी बेशर्मी आ जाती है वह इस वक्त भी तुलिया मे न आयी थी, यद्यपि उसके सिर के बाल चाँदी हो गये थे और गाल लटक-कर दाढो के नीचे आ गये थे। वह खुद तो निश्चित रूप से अपनी उम्र न बता सकती थी, लेकिन लोगों का अनुमान था कि वह सौ की सीमा को पार कर चुकी है। और अभी तक वह चलती तो अचल से सिर ढाँककर, आँखे नीची किये हुए, मानो नवेली बहू है। थी तोचमारिन, पर क्या मजाल कि किसी के घर का पकवान देखकर उसका जी ललचाय। गाँव में ऊँची जातो के बहुत से घर थे। तुलिया का सभी जगह आना-जाना था। सारा गाँब उसकी इज्जत करता था और गृहिणियाँ तो उसे श्रद्धा की आँखो से देखती थी। उसे आग्रह के साथ अपने घर बुलाती, उसके सिर मे लेल डालती, माँग मे सेदुर भरती, कोई अच्छी चीज पकायी होती, जैसे हलवा या खीर या पकौड़ियाँ, तो उसे खिलाना चाहती, लेकिन बुढ़िया को जीभ से सम्मान कही प्यारा था। कभी न खाती। उसके आगे-पीछे कोई न था। उसके टोले के लोग कुछ तो गाँव छोड़कर भाग गये थे, कुछ प्लेग और मलेरिया की भेट हो गये थे और अब थोड़े से खेंडहर मानो उनकी याद मे नगे सिर, खड़े छाती-सी पीट रहे थे। केवल तुलिया की मँडैया ही जिन्दा बच रही थी, और यद्यपि तुलिया जीवन-यात्रा की उस सीमा के निकट पहुँच चुकी थी, जहाँ आदमी धर्म और समाज के सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता है और अब श्रेष्ठ प्राणियो को भी उससे उसकी जात के कारण कोई भेद न था, सभी उसे अपने घर में आश्रय देने को तैयार थे, पर मान-प्रिय बुढ़िया क्यो किसी का एहसान ले, क्यों अपने मालिक की इज्जत में बट्टा लगाये, जिसकी उसने सौ बरस पहले केवल एक बार सूरत देखी थी। हाँ, केवल एक बार!
तुलिया की जब सगाई हुई तो वह केवल पांच साल की थी और उसका पति अठारह साल का बलिष्ठ युवक था। विवाह करके वह पूरब कमाने चला गया। सोचा, अभी इस लड़की के जवान होने मे दस-बारह साल की देर है। इतने दिनों मे क्यों न कुछ धन कमा लें और फिर निश्चिन्त होकर खेती-बारी करूं। लेकिन