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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२३२

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गुप्त धन
 


तुलिया जवान भी हुई, बूढ़ी भी हो गयी, वह लौटकर घर न आया। पचास साल तक उसके खत हर तीसरे महीने आते रहे। खत के साथ जवाब के लिए एक पता लिखा हुआ लिफाफा भी होता था और तीस रुपये का मनीआर्डर। खत मे बह बराबर अपनी विवशता, पराधीनता और दुर्भाग्य का रोना रोता था—क्या करू तूला, मन मे तो बडी अभिलाषा है कि अपनी मँडैया को आबाद कर देता और तुम्हारे साथ सुख से रहता, पर सब कुछ नसीब के हाथ है, अपना कोई बस नही। जब भगवान लावेगे तब आऊँगा। तुम धीरज' रखना। मेरे जीते जी तुम्हे कोई कष्ट न होगा। तुम्हारी बाँह पकड़ी है तो मरते दम तक निवाह करूंगा। जब आँखे बन्द हो जायेगी तब क्या होगा, कौन जाने? प्रायः सभी पत्रों में थोडे से फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हाँ, जवानी के पत्रो में विरह की जो ज्वाला होती थी, उसकी जगह अब निराशा की राख ही रह गयी थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हो। उसने एक खत भी कभी न फाड़ा था—ऐसे शगुन के पत्र कही फाड़े जाते है—उनका एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके कागज का रग 'उड़ गया था, स्याही भी उड गयी थी, लेकिन लुलिया के लिए वे अभी उतने ही सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी पेटारी मे, लाल डोरे से बंधे हुए, उसके दीर्घ जीवन के सचित सोहाग की भॉति, रखे हुए थे। इन पत्रो को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पॉव जमीन पर न पड़ते, उन्हें बार-बार पढ्वाती और बार-बार रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था। गॉव की बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नही, जो पढकर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण है, देह से मूल्य- वान। उनमे देह की कठोरता नही, कलुषता नही, आत्मा की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का कोई दूसरा रूप उसने कहाँ देखा था?

रमणियाँ हँसी से पूछती—क्यों बुआ, तुम्हे फूफा की कुछ याद आती है—तुमने उनको देखा तो होगा? और तुलिया के झुर्रियों से भरे हुए मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आँखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती—याद क्यो नही आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आँखों के सामने है। बड़ी-बड़ी ऑखें, लाल-लाल ऊँचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहाँ कोई