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देवी
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पट्ठा ही नहीं है। मोतियो के से दाँत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने उनसे कहा, मेरे लिए बहुत से गहने बनवाओगे न, नही मै तुम्हारे घर नहीं रहूँगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज कुछ थोडा ही था। मेरी बात सुनकर वह बड़े जोर से ठट्ठा मारकर हँसे और मुझे अपने कधे पर बैठा-कर बोल—मै तुझे गहनो से लाद दूंगा, तुलिया कितने गहने पहनेगी। मै परदेस कमाने जाता हूँ, वहाँ से रुपये भेजूंगा, तू बहुत से गहने बनवाना। जब वहाँ से आऊँगा तो अपने साथ भी सन्दुक भर गहने लाऊँगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, मॉ-बाप की ऐसी हैसियत कहाँ थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलाते। उन्ही के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन मे मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने लगे तो मै उनके गले लिपटकर रोती थी और कढ़ती थी कि मुझेभी अपने साथ लेते चलो, मै तुम्हारा खाना पकाऊंगी, तुम्हारी खाट विछाऊँगी, तुम्हारी धोती छॉदूंगी। वहाँ उन्ही के उमर के दो-तीन लडके और बैठे थे उन्ही के सामने वह मुस्कराकर मेरे कान मे बोले—और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बम, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गयी और उनके ऊपर एक ककड़ फेककर बोली—मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूँ, हाँ!

और यह जीवन-कथा नित्य के सुमिरन और जाप से जीवन-मन्त्र बन गयी थी। उस समय कोई उसका चेहरा देखता! खिला पड़ता था। घूँघट निकालकर, भाव बताकर, मुंह फेरकर हँसती हुई, मानो उसके जीवन मे दुख जैसी कोई चीज है ही नहीं। वह अपने जीवन की इस पुण्य स्मृति का वर्णन करती, अपने अन्तस्तल के इस प्रकाश को दर्शाती जो सौ बरसो से उसके जीवन-पथ को काँटों और गड़ों से बचाता आता था। कैसी अनन्त' अभिलाषा थी, जिसे जीवन-सत्यो ने जरा भी धूमिल न कर पाया था।

वह दिन भी थे, जब तुलिया जवान थी, सुन्दर थी और पतगों को उसके रूप-दीपक पर मॅडराने का नशा सवार था। उनके अनुराग और उन्माद तथा समर्पण की कथाएँ जब वह कॉपते हुए स्वरो और सजल नेत्रो से कहती तो शायद उन शहीदों की आत्माएँ स्वर्ग मे आनन्द से नाच उठती होंगी, क्योकि जीते जी उन्हे जो कुछ न मिला वही अब तुलिया उन पर दोनो हाथो से निछावर कर रही थी। उसकी उठती हुई जवानी थी। जिधर से निकल जाती युवक समाज कलेजे पर हाथ रख-कर रह जाता। तब बसीसिह नाम का एक ठाकुर था, बड़ा छैला, बड़ा रसिया