यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रो की पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आँखो से आँसुओ का तार बँधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पडता था कि भूमि मे फँसा जा रहा है।
एक क्षण के बाद उसने हाथ जोडकर कहा—मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया। मैने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी के उद्धार का यही एक मार्ग है।
तुलिया को उस पर दया नही आयी। वह समझती थी कि यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली—मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या ससार मे कुएँ-तालाब नहीं हैं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है। मैं किसी को क्यों मारूँ?
ठाकुर ने हताश आँखों से देखा।
'तो यही तेरा हुक्म है?'
'मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरनेवाले किसी से हुक्म नहीं मांगते।'
ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी मे तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पॉव फिसल गया होगा। महीनो तक गॉव मे इसकी चर्चा रही, पर तुलिया ने जवान तक न खोली, उधर का आना- जाना बन्द कर दिया।
बसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिर अनाथ विधवा एक दिन जिन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गांव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके हाथ मे लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश मे उसने ठकुराइन को दबे पाँव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आँसू पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में था।
तुलिया ने पूछा—इतनी रात गये कहाँ जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात क्या है, तुम तो रो रही हो।
ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहाँ। तुलिया की ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आँसू भरे हुए थे और इस समय न जाने क्यों और उमड़ आये थे।
तुलिया सामने आकर बोली—जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूंगी।
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