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गुप्त धन
 


ठकुराइन खड़ी हो गयी और ऑसू-भरी आँखों मे क्रोध भरकर बोली—तू क्या करेगी पूछकर? तुझसे मतलब?

'मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मै तुम्हारे गाँव में नहीं रहती? गाँव-वाले एक दूसरे के दुख-दर्द में साथ न देगे तो कौन देगा?'

'इस जमाने में कौन किसका साथ देता है तुलिया? जब अपने घरवालो ने ही साथ नहीं दिया और तेरे भैया के मरते ही मेरे खून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखू? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहाँ मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मै प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन है। चाहते है कि यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पडी रहे। मैं रखेली नहीं हूँ, उढरी नही हूँ, ब्याहता हूँ, दस गाँव के बीच में ब्याह के आयी हूँ। अपनी रत्ती भर जायदाद न छोडूंगी। आज कोई न दे, मै दुखिया हूँ, लेकिन चाहे मेरी आबरू जाय, इनको मिटा के छोडूंगी और अपना आधा लेकर रहूंगी।'

'तेरे भैया', ये दो शब्द तुलिया को इतने प्यारे लगे कि उसने ठकुराइन को गले लगा लिया और उसका हाथ पकड़कर बोली—तो बहिन, मेरे घर मे चलकर रहो। और कोई साथ दे या न दे, तुलिया मरते दम तक तुम्हारा साथ देगी। मेरा घर तुम्हारे रहने लायक नहीं है, लेकिन घर मे और कुछ नही शान्ति तो है और मैं कितनी ही नीच हूँ, तुम्हारी बहिन तो हूँ।

ठकुराइन ने तुलिया के चेहरे पर अपनी विस्मय भरी आँखे जमा दी।

'ऐसा न हो मेरे पीछे मेरा देवर तुम्हारा भी दुश्मन हो जाय।'

'मै दुश्मनों से नहीं डरती, नहीं इस टोले मे अकेली न रहती।'

'लेकिन मै तो नहीं चाहती कि मेरे कारन तुझ पर आफत आवे।'

'तो उनसे कहने ही कौन जाता है, और किसे मालूम होगा कि अन्दर तुम हो।'

ठकुराइन को ढाढ़स बँधा। सकुचाती हुई तुलिया के साथ अन्दर आयी। उसका हृदय भारी था। जो एक विशाल पक्के भवन की स्वामिनी थी, आज इस झोपडी मे पड़ी हुई है।

घर में एक ही खाट थी, ठकुराइन बच्चे के साथ उस पर सोती। तुलिया जमीन पर पड़ रहती। एक ही कम्बल था, ठकुराइन उसको ओढ़ती, तुलिया टाट का टुकडा ओढ़कर रात काटती। मेहमान का क्या सत्कार करे, कैसे रक्खे, यही सोचा करती। ठकुराइन के जूठे बरतन मॉजना, कपडे छॉटना, उसके बच्चे को खिलाना, ये सारे काम वह इतने उमंग से करती, मानो देवी की उपासना कर रही हो । ठकुराइन