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देवी
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इस विपत्ति में भी ठकुराइन थी, गर्बिणी, विलासप्रिय, कल्पनाहीन। इस तरह रहती थी मानो उसी का घर है और तुलिया पर इस तरह रोड जमाती थी मानो वह उसकी लौड़ी है। लेकिन तुलिया अपने अभागे प्रेमी के साथ प्रीति की रीति का निबाह कर रही थी, उसका मन कभी न मैला होता, माथे पर कभी न बल पडता।

एक दिन ठकुराइन ने कहा—तूला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊँगी। इस तरह तो यहाँ जिन्दगी भर तुम्हारी रोटियाँ तोडती रहूँगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी लाज कहाँ कि उसकी भावज कहाँ चली गयी। वह तो दिल मे खुश होगा कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का कॉटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मै अपने मैके नही गयी, कहीं और पडी हूँ, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।

तुलिया ने पूछा—कहाँ जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूं। अकेली कहाँ जाओगी?

'उस सॉप को कुचलने के लिए कोई लाठी खोजूंगी।'

तुलिया इसका आशय न समझ सकी। उसके मुख की ओर ताकने लगी।

ठकुराइन ने निर्लज्जता के साथ कहा तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी साफ-साफ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूंगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेडिये का सिर। इस परगने का हाकिम जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू से बच सके, चाहे वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझे परवाह नहीं। मै यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियाँ तोडूं और वह शोहदा मूंछो पर ताव देकर राज करे।

तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के हृदय पर कितनी गहरी चोट है। इस व्यथा को शान्त करने के लिए बह जान ही पर नहीं खेल रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणो से भी प्रिय समझती है। बसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आँखों के सामने आ खडी हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, और उस रात के सन्नाटे मे उस अनाथा की रक्षा करनेवाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बसीसिह को किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला