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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२४१

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देवी
२४७
 


उसने माथे पर बल लाकर कहा—मै न जानता था,तुझे मेरी जमीन-जायदाद से प्रेम है तुलिया, मुझसे नहीं!

तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया—तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हे मेरे रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं!

'तू प्रेम को बाजार का सौदा समझती है?'

'हॉ, समझती हूँ। तुम्हारे लिए प्रेम चार दिन की चाँदनी होगी, मेरे लिए तो अँधेरा पाख हो जायगा। मैं जब अपना सब कुछ तुम्हे दे रही हूँ तो उसके बदले में सब कुछ लेना भी चाहती हूँ। तुम्हे अगर मुझसे प्रेम होता तो तुम आधी क्या पूरी जायदाद मेरे नाम लिख देते। मै जायदाद क्या सिर पर उठा ले जाऊँगी। लेकिन तुम्हारी नीयत मालूम हो गयी। अच्छा ही हुआ। भगवान न करे कि ऐसा कोई समय आवे, लेकिन दिन किसी के बराबर नही जाते, अगर ऐसा कोई समय आया कि तुमको मेरे सामने हाथ पसारना पड़ा तो तुलिया दिखा देगी कि औरत का दिल कितना उदार हो सकता है।'

तुलिया झल्लायी हुई वहाँ से चली गयी, पर निराश न थी, न बेदिला जो कुछ हुआ वह उसके सोचे हुए विधान का एक अग था। इसके आगे क्या होने-वाला है, इसके बारे मे भी उसे कोई सन्देह न था।

ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े मॅहगे दामों। उसके दिल का इत्मीनान गायब हो गया था। जिन्दगी मे जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आँखों के सामने थी, तुलिया दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज सामने आकर अपनी तिर्थी चितवनो से उसके हृदय में बाण चलाती थी, तब वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय मे बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कही ज्यादा मादक है, विदारक है।

कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नजर आ जाती, और स्वप्न ही की भॉति विलीन भी हो जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सुखी बनाने के लिए उसकी जायदाद जितनी जरूरी है, उससे कही ज्यादा जरूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम । इस जरा-सी बात में