पैपुजी
१
सिद्धान्त का सबसे बड़ा दुश्मन है मुरौवत। कठिनाइयों, बाधाओं, प्रलोभनों का सामना आप कर सकते है दृढ सकल्प और आत्मबल से। लेकिन एक दिली दोस्त से बेमुरोवती तो नहीं की जाती, सिद्धान्त रहे या जाय। कई साल पहले मैंने जनेऊ हाथ में लेकर प्रतिज्ञा की थी कि अब कभी किसी की बरात मे न जाऊँगा चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। ऐसी विकट प्रतिज्ञा करने की जरूरत क्यों पड़ी, इसकी कथा लम्बी है और आज भी उसे याद करके मेरी प्रतिज्ञा को जीवन मिल जाता है। बरात थी कायस्थों की। समधी थे मेरे पुराने मित्र। बरातियो मे अधिकांश जान-पहचान के लोग थे। देहात मे जाना था। मैने सोचा, चलो दो-तीन दिन देहात की सैर रहेगी, चल पड़ा। लेकिन मुझे यह देखकर हैरत हुई कि बरातियो को वहां जाकर बुद्धि ही कुछ भ्रष्ट हो गयी है। बात-बात पर झगड़ा-तकरार। सभी कन्या-पक्षवालों से मानों लड़ने को तैयार। यह चीज नही आयी, वह चीज नहीं भेजी, यह आदमी है या जानवर, पानी बिना बरफ़ के कौन पियेगा। गधे ने बरफ भेजी भी तो दस सेर। पूछो दस सेर बरफ लेकर ऑस्त्रो मे लगायें या किसी देवता को चढ़ाये! अजब चिल-पों मची हुई थी। कोई किसी की न सुनता था। संधी साहब सिर पीट रहे थे कि यहाँ उनके मित्रों की जितनी दुर्गति हुई, उसका उन्हें उम्र भर खेद रहेगा। वह क्या जानते थे कि लड़कीवाले इतने गवार है। गँवार क्यों, मतलबी कहिए। कहने को शिक्षित है, सभ्य है, भद्र है, धन भी भगवान की दया से कम नहीं, मगर दिल के इतने छोटे। दस सेर बरफ़ भेजते हैं! सिगरेट की एक डिबिया भी नहीं! फंस गया और क्या।
मैंने उनसे बिना सहानुभूति दिखाये कहा—सिगरेट नही भेजे तो कौन-सा बड़ा अनर्थ हो गया, खमीरा तम्बाकू तो दस सेर भेज दिया है, पीते क्यो नही घोल-घोल कर।
मेरे समधी मित्र ने विस्मयभरी आँखों से मुझे देखा मानों उन्हे अपने कानों पर विश्वास न हो। ऐसी अनीति!