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गुप्त धन
 


आदर-सत्कार, चूनी-चोकर, रूखा-सूखा मिले, उस पर उसे सन्तुष्ट होना चाहिए। शिष्टता यह कभी गवारा नहीं कर सकती कि वह जिनका मेहमान है, उनसे अपनी खातिरदारी का टैक्स वसूल करे। मैने वहाँ से टल जाना ही मुनासिब समझा।

लेकिन जब विवाह का मुहूर्त आया, इधर से एक दर्जन व्हिस्की की बोतलो की फरमाइश हुई और कहा गया कि जब तक बोतले न आ जायेंगी, हम विवाह-संस्कार के लिए मडप मे न जायेंगे, तब मुझसे न देखा गया। मैने समझ लिया कि ये सब पशु है, इंसानियत से खाली। इनके साथ एक क्षण रहना भी अपनी आत्मा का खून करना है। मैने उसी वक्त प्रतिज्ञा की कि अब कभी किसी बरात मे न जाऊँगा और अपना बोरिया-वकचा लेकर उसी क्षण वहाँ से चल दिया।

इसलिए जब गत मगलवार को मेरे परम मित्र सुरेश बाबू ने मुझे अपने लड़के के विवाह का निमत्रण दिया तो मैने साहस को दोनो हाथो में पकड़कर कहा—जी नही, मुझे क्षमा कीजिए, मै न जाऊँगा।

उन्होंने खिन्न होकर कहा—आखिर क्यो?

'मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि अब किसी बरात में न जाऊँगा।'

'अपने बेटे की बरात मे भी नही?'

'बेटे की बरात में खुद अपना स्वामी रहूँगा।'

'तो समझ लीजिए यह आप ही का पुत्र है और आप यहाँ अपने स्वामी है।'

मै निरुत्तर हो गया। फिर भी मैंने अपना पक्ष न छोड़ा।

'आप लोग वहाँ कन्यापक्षवालों से सिगरेट, बर्फ, तेल, शराब आदि-आदि चीजो के लिए आग्रह तो न करेगे?'

'भूलकर भी नही, इस विषय में मेरे विचार वही है जो आपके।'

'ऐसा तो न होगा कि मेरे जैसे विचार रखते हुए भी आप वहाँ दुराग्रहियो की बातो में आ जायँ और बे अपने हथकडे शुरू कर दे?'

आप ही को अपना प्रतिनिधि बनाता हूँ। आपके फैसले की वहाँ कही अपील न होगी।'

दिल मे तो मेरे अब भी कुछ सशय था, लेकिन इतना आश्वासन मिलने पर और ज्यादा अड़ना असज्जनता थी। आखिर मेरे वहाँ जाने से यह बेचारे तर तो नही जायेंगे। केवल मुझसे स्नेह रखने के कारण ही तो सब कुछ मेरे हाथो में सौप रहे है। मैंने चलने का वादा कर लिया। लेकिन जब सुरेश बाबू बिदा होने लगे तो मैंने घड़े को जरा और ठोका—