'लेन-देन का तो कोई झगड़ा नहीं है?'
'नाम को नही। वे लोग अपनी खुशी से जो कुछ देगे, वह हम ले लेगे। माँगने न माँगने का अधिकार आपको रहेगा।'
'अच्छी बात है, मै चलूंगा।'
शुक्रवार को बरात चली। केवल रेल का सफर था और वह भी पचास मील का। तीसरे पहर के एक्सप्रेस से चले और शाम को कन्या के द्वार पर पहुँच गये। वहाँ हर तरह का सामान मौजूद था। किसी चीज के मॉगने की ज़रूरत न थी। बरातियो की इतनी खातिरदारी भी हो सकती है, इसकी मुझे कल्पना भी न थी। घराती इतने विनीत हो सकते है, कोई बात मुंह से निकली नही कि एक की जगह चार आदमी हाथ बाँधे हाजिर!
लग्न का मुहूर्त आया। हम सभी मडप मे पहुंचे। वहाँ तिल रखने की जगह भी न थी। किसी तरह धंस-धंसाकर अपने लिए जगह निकाली। सुरेश बाबू मेरे पीछे खड़े थे। बैठने को वहाँ जगह न थी।
कन्या-दान संस्कार शुरू हुआ। कन्या का पिता, एक पीताम्बर पहने आकर वर के सामने बैठ गया और उसके चरणों को धोकर उन पर अक्षत, फूल आदि चढाने लगा। मै अब तक सैकड़ो बरातो मे जा चुका था, लेकिन विवाह-संस्कार देखने का मुझे कभी अवसर न मिला था। इस समय वर के सगे-संबधी ही जाते है। अन्य बराती जनवासे मे पड़े सोते है। या नाच देखते है, या प्रामोफोन के रिकार्ड सुनते है। और कुछ न हुआ तो कई टोलियो में ताश खेलते है। अपने विवाह की मुझे याद नही। इस वक्त कन्या के वृद्ध पिता को एक युवक के चरणों की पूजा करते देखकर मेरी आत्मा को चोट लगी। यह हिन्दू विवाह का आदर्श है या उसका परिहास? जामाता एक प्रकार से अपना पुत्र है, उसका धर्म है कि अपने धर्मपिता के चरण धोये, उस पर पान-फूल चढ़ाये। यह तो नीति-संगत मालूम होता है। कन्या का पिता वर के पॉव पूजे यह तो न शिष्टता है,न धर्म,न मर्यादा। मेरी विद्रोही आत्मा किसी तरह शांत न रह सकी। मैने झल्लाये हुए स्वर मे कहा-यह क्या अनर्थ हो रहा है, भाइयो! कन्या के पिता का यह अपमान! क्या आप लोगों में आदमियत रही ही नहीं?
मड़प मे सन्नाटा छा गया। मैं सभी आँखों का केन्द्र बन गया। मेरा क्या आशय है, यह किसी की समझ मे न आया।
आखिर सुरेश बाबू ने पूछा—कैसा अपमान और किसका अपमान? यहाँ तो किसी का अपमान नही हो रहा है।