'कन्या का पिता वर के पाँव पूजे, यह अपमान नहीं तो क्या है?'
'यह अपमान नहीं, भाई साहब, प्राचीन प्रया है।'
कन्या के पिता महोदय बोले—यह मेरा अपमान नहीं है मान्यवर, मेरा अहो-भाग्य कि आज यह शुभ अवसर आया। आप इतने ही से घबरा गये। अभी तो कम से कम एक सौ आदमी पैपुजी के इंतजार में बैठे हुए है। कितने ही तरसते है कि कन्या होती ती वर के पाँव पूजकर अपना जन्म सफल करते।
मैं लाजवाब हो गया। संमधी साहब पांव पूज चुके तो स्त्रियों और पुरुषों का एक समूह बर की तरफ उमड़ पड़ा और प्रत्येक प्राणी लगा उसके पाँव पूजने। जो आता था, अपनी हैसियत के अनुसार कुछ न कुछ चढ़ा जाता था। सब लोग प्रसन्न-चित्त और गद्गद नेत्रों से यह नाटक देख रहे थे और मै मन में सोच रहा था—जब समाज मे औचित्य ज्ञान का इतना लोप हो गया है और लोग अपने अपमान को अपना सम्मान समझते है तो फिर क्यों न स्त्रियों की समाज में यह दुर्दशा हो, क्यो न वे अपने को पुरुष के पॉव की जूती समझें, क्यों न उनके आत्मसम्मान का सर्वनाश हो जाय!
जब विवाह-संस्कार समाप्त हो गया और वर-वधू मडप से निकले तो मैंने जल्दी से आगे बढकर उसी थाल से थोडे से फूल चुन लिये और एक अर्द्ध-चेतना की दशा मे, न जाने किन भावों से प्रेरित होकर, उन फूलों को वधू के चरणों पर रख दिया, और उसी वक्त वहाँ से घर चल दिया।
—माधुरी, अक्तूबर १९३५