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गुप्त धन
 


यह कैसे पूछूं कि मेरी आपसे भेंट कब हुई। उसकी बेतकल्लुफी कह रही थी वह मुझसे परिचित है। मै बेगाना कैसे बनूं। इसी सिलसिले मे मैने अपने मर्द होने का फर्ज भी अदा कर दिया—मेरे लिए कोई खिदमत?

उसने मुस्कराकर कहा—जी हाँ, आपसे बहुत से काम लूंगी। चलिए, अंदर बेटिंग रूम में बैठे। लखनऊ जा रहे होंगे? मैं भी वही चल रही हूँ।

बेटिंग रूम आकर उसने मुझे आरामकुर्सी पर बिठाया और खुद एक मामूली कुर्सी पर बैठकर सिगरेट केस मेरी तरफ बढ़ाती हुई बोली—आज तो आपकी बोलिंग बड़ी भयानक थी, बर्ना हम लोग पूरी इनिंग से हारते।

मेरा ताज्जुब और भी बढा। इस सुन्दरी को क्या क्रिकेट से भी शौक है। मुझे उसके सामने आरामकुर्सी पर बैठते झिझक हो रही थी। ऐसी बदतमीजी मैंने कभी न की थी। ध्यान उसी तरफ लगा था। तबियत मे कुछ घुटन-सी हो रही थी। रगों में वह तेजी और तबियत मे वह गुलाबी नशा न था जो ऐसे मौके पर स्वभाबत! मुझ पर छा जाना चाहिए था। मैंने पूछा—क्या आप वही तशरीफ रखती थीं?

उसने अपना सिगरेट जलाते हुए कहा—'जी हाँ, शुरू से आखिर तक्क। मुझे तो सिर्फ आपका खेल जंचा। और लोग तो कुछ बेदिल से हो रहे थे और मै उसका राज समझ रही हूँ। हमारे यहाँ लोगों में सही आदमियों को सही जगह पर रखने का माद्दा ही नहीं है। जैसे इस राजनीतिक पस्ती ने हमारे सभी गुणों को कुचल डाला हो। जिसके पास धन है उसे हर चीज़ का अधिकार है। वह किसी ज्ञान-विज्ञान के, साहित्यिक-सामाजिक जलसे का सभापति हो सकता है, इसकी योग्यता उसमें हो या न हो। नयी इमारतों का उद्घाटन उसके हाथो कराया जाता है, बुनियादे उसके हाथों रखवायी जाती है, सांस्कृतिक आंदोलनों का नेतृत्व उसे दिया जाता है, वह कान्वोकेशन के भाषण पढ़ेगा, लड़कों को इनाम बॉटेगा, यह सब हमारी दास- मनोवृत्ति का प्रसाद है। कोई ताज्जुब नहीं कि हम इतने नीचे और गिरे हुए है। जहाँ हुक्म और अख्तियार का मामला है वहाँ तो खैर मजबूरी है, हमे लोगो के पैर चूमने ही पड़ते हैं मगर जहाँ हम अपने स्वतंत्र विचार और स्वतत्र आचरण से काम ले सकते है वहाँ भी हमारी जी हुजूरी की आदत हमारा गला नहीं छोड़ती। इस टीम का कप्तान आपको होना चाहिए था, तब देखती कि दुश्मन क्योंकर बाजी ले जाता। महाराजा साहब में इस टीम का कप्तान बनने की इतनी ही योग्यता है जितनी आप में असेम्बली का सभापति बनने की या मुझमें सिनेमा ऐक्टिंग की।