कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो
उन दिनों दोस्त से कहा दूध की तकलीफ थी। कई डेरी फार्मों की आजमाइश की, अहीरों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं। दो-चार दिन तो दूध अच्छा मिलता फिर मिलावट शुरू हो जाती। कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगती, कभी मक्खन के रेजे निकलते। आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा—भाई, आओ साझे मे एक गाय ले ले। तुम्हे भी दूध का आरामहोगा, मुझे भी। लागत आधी आधी, खर्च आधा आधा, दूध भी आधा आधा। दोस्त साहब राजी हो गये। मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफ़रत है। उनके मकान में काफी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्ही के घर रहे। इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे। वह उसे पूरी आजादी से पाथे, उपले बनाये, घर ली, पडोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लाये, इकरार करनेवाले को इसमे किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इकरार करनेवाला सही होश-हवास मे इकरार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी को उसे इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा।
दूध आने लगा, रोज-रोज की झंझट से मुक्ति मिली। एक हफ्ते तक किसी तरह की शिकायत न पैदा हुई। गरम-गरम दूध पीता था और खुश होकर गाता था—
रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई।
ताजा दूध पिलाया उसने लुत्फ़-हयात चखाया उसने।
दूव में भीगी रोटी मेरी उसके करम ने बख्शी सेरी।
खुदा की रहमत की है मूरत कैसी भोली-भाली सूरत।
मगर धीरे-धीरे यहाँ भी पुरानी शिकायते पैदा होने लगी। यहाँ तक नौबत
१. एक फारसी कहावत