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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२७०

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गुप्त धन
 

उतनी जिन्दगी में कभी न सही। और जिस धीरज से आज काम लिया अगर उससे दूसरे मौको पर काम लिया होता तो आज आदमी होता। कोई जवाब ही न सूझता था। बस यही जी चाहता था कि बकरी का गला घोट दूं और खिदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊँ। मेरी खामोशी से वह औरत और भी शेर होती जाती थी। आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्ही मौकों पर खामोशी नुकसान-देह साबित होती है। खैर मेरी बीवी ने घर मे यह गुल-गपाडा सुना तो दरवाजे पर आ गयी और हेकडी से बोली तू कानीहौज पहुँचा दे और क्या करेगी, नाहक दर टर्र कर रही है, घण्टे भर से। जानबर ही है, एक दिन खुल गयी तो क्या उसकी जान लेगी? खबरदार जो एक बात भी मुंह से निकाली होगी। क्यो नही खेत के चारो तरफ झाड लगा देती, कॉटो से सँध दे। अपनी गलती तो मानती नहीं,ऊपर से लडने आयी है। अभी पुलिस मे इत्तला कर दे तो बॅधे-बधे फिरो।

बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठडा कर दिया। लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की खूब खबर ली- गरीबो का नुकसान भी करती हो ऊपर से रोव जमाती हो। इसी का नाम ईसाफ है?

देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतानों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डॉटने। गँवारो को राह बतलाने का सहनी के सिवा दूसरा कोई तरीका नही। सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती। उसे यह लोग कमजोरी समझते है और कमजोर को कौन नहीं दबाना चाहता।

खिदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ कह दिया चराना मेरा काम नहीं है।

मैने कहा ---- तुमसे बकरी चराने को कौन कहता है, जरा उसे देखते रहा करो कि किसी खेत मे न जाय, इतना भी तुमसे नही हो सकता?

'मै बकरी नहीं चरा सकता साहब, कोई दूसरा आदमी रख लीजिए।'

आखिर मैने खुद शाम को उसे बाग में चरा लाने का फैसला किया। इतने जरा से काम के लिए एक नया आदमी रखना मेरी हैसियत से बाहर था। और अपने इस नौकर को जवाब भी नहीं देना चाहता था जिसने कई साल तक वफादारी से मेरी सेवा की थी और ईमानदार था। दूसरे दिन मै दफ्तर से जरा जल्द चला आया और चटपट बकरी को लेकर बाग में जा पहुंचा। जाड़ों के दिन थे। ठण्डी हवा चल रही थी। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियों गिरी हुई थी। बकरी पत्तियों