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कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो
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पर टूटी पड़ती थी गोया महीनों की भूखी हो। अभी इस पेड़ के नीचे थी, एक पल में वह जा पहुँची। मेरी दलेल हो रही थी, उसके पीछे-पीछे दौडता फिरता था!दफ्तर से लौटकर जरा आराम किया करता था, आज यह कवायद करना पडी,थक गया, मगर मेहनत सुफल हो गयी, आज बकरी ने कुछ ज्यादा दूध दिया।

यह खयाल आया, अगर सूखी पत्तियों खाने से दूध की मात्रा बढ़ गयी तो यकीनन हरी पत्तियाँ खिलायी जायँ तो इससे कही बेहतर नतीजा निकले। लेकिन हरी पत्तियों आये कहाँ से? पेडों से तोडू तो बाग का मालिक जरूर एतराज करेगा, कीमत देकर हरी पत्तियाँ मिल न सकती थी। सोचा क्यों न एक बार बॉस' के लग्गे से पत्तियाँ तोडे। मालिक ने शोर मचाया तो उससे आरजू-भिन्नत कर लेगे। राजी हो गया तो खैर, नहीं देखी जायगी। थोडी-सी पत्तियाँ तोड लेने से पेड़ का क्या बिगडा जाता है। चुनाचे एक पडोसी से एक पतला लम्बा बॉस मॉग लाया, उसमे एक ऑकुस बाँधा और शाम को बकरी को साथ लेकर पत्तियां तोडने लगा। चोर आँखो से इधर-उधर देखता जाता था, कही मालिक तो नहीं आ रहा है। अचानक वही काछी एक तरफ से आ निकला और मुझे पत्तियाँ तोडते देखकर बोला--यह क्या करते हो बाबूजी, आपके हाथ मे यह लग्गा अच्छा नहीं लगता। बकरी पालना हम गरीबो का काम है कि आप जैसे सरीफों का। मैं कट गया, कुछ जवाब न सूझा। इसमे क्या बुराई है, अपने हाथ से अपना काम करने में क्या शर्म वगैरह जवाब कुछ हलके, बेहकीकत, बनावटी मालूम हुए। सफेदपोशी के आत्मगौरव ने जबान बन्द कर दी। काछी ने पास आकर मेरे हाथ से लग्गा ले लिया और देखते-देखते हरी पत्तियो का ढेर लगा दिया और पूछा-पत्तियों कहाँ रख आऊँ।

मैने झेपते हुए कहा--तुम रहने दो मैं उठा ले जाऊँगा।

उसने थोडी-सी पत्तियाँ बगल मे उठा ली और बोला--आप क्या पत्तियां रखने जायेंगे, चलिए मैं रख आऊँ।

मैने बरामदे मे पत्तियाँ रखवा लीं। उसी पेड़ के नीचे उसकी चौगुनी पत्तियाँ पड़ी हुई थीं, काछी ने उनका एक गट्ठा बनाया और सर पर लादकर चला गया। अब मुझे मालूम हुआ, यह देहाती कितने चालाक होते है। कोई बात मतलब से खाली नहीं।

मगर दूसरे दिन बकरी को बाग में ले जाना मेरे लिए कठिन हो गया। काछी