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गुप्त धन
 

फिर देखेगा और न जाने क्या-क्या फिकरे चुस्त करे। उसकी नजरों में गिर जाना मुंह मे कालिख लगाने से कम शर्मनाक न था। हमारे सम्मान और प्रतिष्ठा की जो कसौटी लोगो ने बना रक्खी है, हमको उसका आदर करना पडेगा, नक्कू बनकर रहे तो क्या रहे।

लेकिन बकरी इतनी आसानी से अपनी निर्द्वन्द्र आजाद चहलकदमी से हाथ न खीचना चाहती थी जिसे उसने अपनी साधारण दिनचर्या समझना शुरू कर दिया था। शाम होते ही उसने इतने जोर-शोर से प्रतिवाद का स्वर उठाया कि घर मे बैठना मुश्किल हो गया। गिटकिरीदार 'मे में' का निरन्तर स्वर आ-आकर कान के पर्दो को क्षत-विक्षत करने लगा। कहाँ भाग जाऊँ ? बीवी ने उसे गालियाँ देना शुरू की। मैने गुस्से मे आकर कई डंडे रसीद किये, मगर उसे सत्याग्रह स्थगित न करना थान किया। बडे सकट मे जान थी।

आखिर मजबूर हो गया। अपने किये का क्या इलाज ! आठ बज रात जाडो के दिन। घर से बाहर मुँह निकालना मुश्किल और मै बकरी को बाग में टहला रहा था और अपनी किस्मत को कोस रहा था। अँधेरे मे पॉव रखते मेरी रूह कॉपती है। एक बार मेरे सामने से एक सॉप निकल गया था। अगर उसके ऊपर पैर पड़ जाता तो ज़रूर काट लेता। तब से मै अँधेरे मे कभी न निकलता था। मगर आज इस बकरी के कारण मुझे इस खतरे का भी सामना करना पड़ा। जरा भी हवा चलती और पत्ते खड़कते तो मेरी आँखे ठिठुर जाती और पिंडलियाँ कांपने लगतीं। शायद उस जनम मे मै बकरी रहा हूँगा और यह बकरी मेरी मालकिन रही होगी। उसी का प्रायश्चित्त इस जिन्दगी मे भोग रहा था। बुरा हो उस पडित का, जिसने यह बला मेरे सिर मढ़ी। गिरस्ती भी जजाल है। बच्चा न होता तो क्यो इस मूजी जानवर की इतनी खुशामद करनी पडती। और यह बच्चा बड़ा हो जायगा तो बात न सुनेगा, कहेगा, आपने मेरे लिये क्या किया है। कौनसी जायदाद छोडी है ! यह सजा भुगलकर नौ बजे रात को लौटा। अगर रात को बकरी मर जाती तो मुझे जरा भी दुख न होता ।

दूसरे दिन सुबह से ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि किसी तरह रात की बेगार से छुट्टी मिले। आज दफ्तर में छुट्टी थी। मैने एक लम्बी रस्मी मॅगदायी और शाम को बकरी के गले में रस्सी डाल एक पेड़ की जड से बाँधकर सो गया ---- अब चरे जितना चाहे। अब चिराग जलते-जलते खोल लाऊँगा। छुट्टी थी ही, शाम को सिनेमा देखने की ठहरी। एक अच्छा सा खेल आया हुआ था। नौकर को