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गुप्त धन
 


हुआ बकरी गाभिन हो गयी है। मैने ज़रा भी एतराज न किया। काछी के पास गाय थी, उससे दूध लेने लगा। मेरा नौकर खुद जाकर दुहा लाता था।

कई महीने गुजर गये। गड़रिया महीने मे एक बार आकर अपना रुपया ले जाता। मैने कभी उससे बकरी का जिक्र न किया। उसके खयाल ही से मेरी आत्मा कॉप जाती थी। गड़रिये को अगर चेहरे का भाव पढ़ने की कला आती होती तो वह बड़ी आसानी से अपनी सेवा का पुरस्कार दुगना कर सकता था।

एक दिन मैं दरवाजे पर बैठा हुआ था कि गड़रिया अपनी बकरियों का गल्ला लिये आ निकला। मै उसका रुपया लाने अन्दर गया, कि क्या देखता हूँ मेरी बकरी दो बच्चों के साथ मकान में आ पहुँची। वह पहले सीधी उस जगह गयी जहाँ बघा करती थी फिर वहाँ से आँगन मे आयी और शायद परिचय दिखलाने के लिए मेरी बीवी की तरफ ताकने लगी। उन्होने दौड़कर एक बच्चे को गोद में ले लिया और कोठरी में जाकर महीनों का जमा चोकर निकाल लायी और ऐसी मुहब्बत से बकरी को खिलाने लगी कि जैसे बहुत दिनों की बिछुडी हुई सहेली आ गयी हो। न वह पुरानी कटुता थी न वह मनमुटाव। कभी बच्चे को चुभकारती थी, कभी बकरी को सहलाती थी और बकरी डाकगाड़ी की रफ्तार से चोकर उड़ा रही थी।

तब मुझसे बोली—कितने खूबसूरत बच्चे है!

'हाँ, बहुत खूबसूरत।'

'जी चाहता है, एक पाल लूं।'

'अभी तबियत नही भरी।'

'तुम बड़े निर्मोही हो।'

चोकर स्वतम हो गया, बकरी इत्मीनान से बिदा हो गयी। दोनों बच्चे भी उसके पीछे फुदकते चले गये। देवी जी आँख में आँसू भरे यह तमाशा देखती रही।

गड़रिये ने चिलम भरी और घर मे आग मॉगने आया। चलते वक्त बोला—कल से दूध पहुँचा दिया करूँगा मालिक।'

देवीजी ने कहा—और दोनों बच्चे क्या पियेगे?

'बच्चे कहाँ तक पियेगे बहूजी। दो सेर दूध देती है, अभी दूध अच्छा न होता था, इस मारे नहीं लाया।'

मुझे रात को वह मर्मान्तक घटना याद आ गयी।

मैंने कहा—दूध लाओ या न लाओ, तुम्हारी खुशी, लेकिन बकरी को इधर न लाना।