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गुप्त धन
 

सोचता था तो वह हलवाई की दुकान होती थी। विक्री हो या न हो, मिठाइयाँ तो खाने को मिलेगी। हलवाइयों को देखो, मारे मोटापे के हिल नहीं सकते। लेकिन वह बेवकूफ होते है, आरामतलबी के मारे तोद निकाल लेते है, मै कसरत करता रहूँगा। मगर गुड की वह धीरज की परीक्षा लेनेवाली, भूख को तेज करने- वाली खुशबू बराबर आ रही है। मुझे वह घटना याद आती है, जब अम्मा तीन महीने के लिए अपने मैके या मेरी ननिहाल गयी थी और मैने तीन महीने में एक मन गुड का सफाया कर दिया था। यही गुड के दिन थे। नाना बीमार थे, अम्माँ को बुला भेजा था। मेरा इम्तहान पास था इसलिए मैं उनके साथ न जा सका, मुन्नू को लेती गयी। जाते वक्त उन्होने एक मन गुड़ लेकर एक मटके मे रखा और उसके मुंह पर एक सकोरा रखकर मिट्टी से बन्द कर दिया। मुझे सख्त ताकीद कर दी कि मटका न खोलना। मेरे लिए थोड़ा-सा गुड एक हॉडी मे रख दिया था। वह हॉडी मैने एक हफ्ते मे सफाचट कर दी। सुबह को दूध के साथ गुड, दोपहर को रोटियो के साथ गुड, तीसरे पहर दानो के साथ गुड, रात को फिर दूध के साथ गुड। यहाँ तक जायज खर्च था जिस पर अम्माँ को भी कोई एतराज न हो सकता। मगर स्कूल से बार-बार पानी पीने के बहाने घर मे आता और दो- एक पिण्डियाँ निकालकर खा लेता। उसकी बजट में कहाँ गुंजाइश थी। और मुझे गुड का कुछ ऐसा चस्का पड़ गया कि हर वक्त वही नशा सवार रहता। मेरा घर मे आना गुड के सिर शामत आना था। एक हफ्ते में हॉडी ने जवाब दे दिया। मगर मटका खोलने की सख्त मनाही थी और अम्मों के घर आने में अभी पौने तीन महीने बाकी थे। एक दिन तो मैने बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे सब्र किया लेकिन दूसरे दिन एक आह के साथ सब्र जाता रहा और मटके की एक मीठी चित- वन के साथ होश रुखसत हो गया। मैने महापाप की भावना के साथ मटके को खोला और हॉडी भर गुड निकालकर उसी तरह मटके को बन्द कर दिया और सकल्प कर लिया कि इस हॉडी को तीन महीने चलाऊँगा। चले या न चले, मैं चलाये जाऊँगा। मटके को वह सात मजिल समझेंगा जिसे रुस्तम भी न खोल सका था। मैने मटके की पिंडियों को कुछ इस तरह कैची लगाकर रखा कि जैसे बाज़ दुकानदार दियासलाई की डिवियाँ भर देते है। एक हॉडी गुड़ खाली हो जाने पर भी मटका मुंहोमुँह भरा था। अम्मों को पता ही न चलेगा, सवाल- जवाब की नौबत कैसे आयेगी। मगर दिल और ज़बान में वह खीच-तान शुरू हुई कि क्या कहूँ, और हर बार जीत जबान ही के हाथ रहती। यह दो अंगुल की