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होली की छुट्टी
३५
 

ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, शरीर थकान से चूर होता जाता था, यहाँ तक कि पांव काँपने लगे। कच्ची सडक पर गाड़ियों के पहियों की लीक पड़ गयी थी। जब कभी लीक में पाँव चला जाता तो मालूम होता किसी गहरे गढ़े मे गिर पड़ा हूँ। बार-बार जी मे आता, यहीं सड़क के किनारे लेट जाऊँ। किताबों की छोटी सी पोटली मन भर की लगती थी। अपने को कोसता था कि किताब लेकर क्यों चला। दूसरी ज़बान का इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था मगर छुट्टियों में एक दिन भी तो किताब खोलने की नौबत न आयगी, खामखाह यह बोझा उठाये चला आता हूँ। ऐसा जी झुंझलाता था कि इस मूर्खता के बोझ को वहीं पटक दूँ। आखिर टाँगों ने चलने से इनकार कर दिया। एक बार मैं गिर पड़ा और सम्हलकर उठा तो पाँव थरथरा रहे थे। अब बगैर कुछ खाये पैर उठाना दुभर था, मगर यहाँ क्या खाऊँ। बार-बार रोने को जी चाहता था। संयोग से एक ईख का खेत नज़र आया; अब मै अपने को न रोक सका। चाहता था कि खेत में घुसकर चार-पांच ईख तोड लूं और मजे से रस चूसता हुआ चलूं। रास्ता भी कट जायेगा और पेट में कुछ पड़ भी जायेगा। मगर मेड़ पर पॉव रखा ही था कि कॉटों में उलझ गया। किसान ने शायद मेड़ पर कॉट बिखेर दिये थे। शायद बेर की झाड़ी थी। धोती-कुर्ता सब काँटों में फंसा हुआ, पीछे हटा तो काँटों की झाडी साथ-साथ चली, कपड़े छुड़ाने लगा तो हाथ में काँटे चुभने लगे। जोर से खीचा तो धोती फट गयी। भूख तो गायब हो गयी, फ़िक्र हुई कि इस नयी मुसीबत से क्योंकर छुटकारा हो। काँटों को एक जगह से अलग करता तो दूसरी जगह चिमट जाते, झुकता तो शरीर में चुभते, किसी को पुकारूँ तो चोरी खुली जाती है, अजीब मुसीबत में पड़ा हुआ था। उस वक्त मुझे अपनी हालत पर रोना आ गया। कोई रेगिस्तानों की खाक छाननेवाला आशिक़ भी इस तरह काँटों में न फंसा होगा! बड़ी मुश्किल से आध घण्टे में गला छूटा, मगर धोती और कुर्ते के माथे गयी, हाथ और पॉव छलनी हो गये वह घाते में। अब एक कदम आगे रखना मुहाल था। मालूम नहीं कितना रास्ता तय हुआ, कितना बाकी है, न कोई आदमी न आदमजाद, किससे पूछू। अपनी हालत पर रोता हुआ जा रहा था। एक बडा गाँव नजर आया। बड़ी खुशी हुई। कोई न कोई दुकान मिल ही जायगी। कुछ खा लूंगा और किसी के सायबान में पड रहूँगा, सुबह देखी जायगी।

मगर देहातों मे लोग सरे-शाम सोने के आदी होते है। एक आदमी कुएँ पर पानी भर रहा था। उससे पूछा तो उसने बहुत ही निराशाजनक उत्तर