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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/३२

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गुप्त धम
 

दिया—अब यहाँ कुछ न मिलेगा। बनिये नमक-तेल रखते है। हलवाई की दुकान एक भी नहीं। कोई शहर थोडे ही है, इतनी रात तक दुकान खोले कौन बैठा रहे!

मैंने उससे बड़े विनती के स्वर में कहा—कही सोने को जगह मिल जायगी?

उसने पूछा—कौन हो तुम? तुम्हारी जान-पहचान का यहाँ कोई है?

'जान-पहचान का कोई होता तो तुमसे क्यो पूछता ?'

'तो भाई, अनजान आदमी को यहाँ नही ठहरने देगे। इसी तरह कल एक मुसाफ़िर आकर ठहरा था, रात को एक घर मे सेध पड गयी, सुबह को मुसाफिर का पता न था।'

'तो क्या तुम समझते हो, मै चोर हूँ।'

'किसी के माथे पर तो लिखा नहीं होता, अन्दर का हाल कौन जाने!'

'नही ठहराना चाहते न सही, मगर चोर तो न बनाओ। मै जानता यह इतना मनहूस गाँव है तो इधर आता ही क्यो?'

मैने ज्यादा खुशामद न की, जी जल गया। सड़क पर आकर फिर आगे चल पड़ा। इस वक्त मेरे होश ठिकाने न थे। कुछ खबर नहीं किस रास्ते से गाँव मे आया था और किधर चला जा रहा था। अब मुझे अपने घर पहुँचने की उम्मीद न थी। रात यों ही भटकते हुए गुजरेगी, फिर इसका क्या गम कि कहाँ जा रहा हूँ। मालूम नही कितनी देर तक मेरे दिमाग की यह हालत रही। अचानक एक खेत में आग जलती हुई दिखायी पड़ी कि जैसे आशा का दीपक हो। जरूर वहाँ कोई आदमी होगा। शायद रात काटने को जगह मिल जाय । कदम तेज किये और करीब पहुँचा कि यकायक एक बडा-सा कुत्ता भूँकता हुआ मेरी तरफ़ दौडा। इतनी डरावनी आवाज थी कि मैं कॉप उठा। एक पल में वह मेरे सामने आ गया और मेरी तरफ लपक लपककर भूँकने लगा। मेरे हाथों में किताबो की पोटली के सिवा और क्या था, न कोई लकडी थी न पत्थर, कैसे भगाऊँ, कही बदमाश मेरी टाँग पकड़ ले तो क्या करूँ! अग्नेजी नस्ल का शिकारी कुत्ता मालूम होता था। मैं जितना ही वत्-धत् करता था उतना ही वह गरजता था। मै खामोश खड़ा हो गया और पोटली जमीन पर रखकर पाँव से जूते निकाल लिये, अपनी हिफाजत के लिए कोई हथियार तो हाथ मे हो! उसकी तरफ गौर से देख रहा था कि खतरनाक हद तक मेरे करीब आये तो उसके सिर पर इतने जोर से नालदार जूता मार दूं कि याद ही तो करे लेकिन शायद उसने मेरी नियत ताड़ ली और इस तरह