पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

नादान दोस्त


केशव के घर में कार्निस के ऊपर एक चिडिया ने अण्डे दिये थे। केशव और उसकी बहन श्यामा दोनों बड़े ध्यान से चिडिया को वहाँ आते-जाते देखा करते। सबेरे दोनों आँखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और चिडा या चिड़िया दोनों को वहाँ बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बच्चो को न मालूम क्या मजा मिलता, दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के दिल में तरह-तरह के सवाल उठते। अण्डे कितने बड़े होंगे? किस रंग के होंगे? कितने होगे? क्या खाते होंगे? उनमें बच्चे किस तरह निकल आयेगे? बच्चों के पर कैसे निकलेंगे? घोंसला कैसा है? लेकिन इन बातों का जवाब देनेवाला कोई नहीं। न अम्माँ को घर के काम-धंधों से फुर्सत थी न बाबू जी को पढ़ने-लिखने से। दोनों बच्चे आपस ही में सवाल-जवाब करके अपने दिल को तसल्ली दे लिया करते थे।

श्यामा कहती—क्यों भइया, बच्चे निकलकर फुर से उड़ जायेंगे?

केशव विद्वानों जैसे गर्व से कहता—नहीं री पगली, पहले पर निकलेंगे। बगैर परों के बेचारे कैसे उड़ेंगे?

श्यामा—बच्चों को क्या खिलायेगी बेचारी?

केशव इस पेचीदा सवाल का जवाब कुछ न दे सकता था।

इस तरह तीन-चार दिन गुजर गये। दोनों बच्चों की जिज्ञासा दिन-दिन बढ़ती जाती थी। अण्डों को देखने के लिए वे अधीर हो उठते थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि अब ज़रूर बच्चे निकल आये होंगे। बच्चो के चारे का सवाल अब उनके सामने आ खड़ा हुआ। चिड़िया बेचारी इतना दाना कहाँ पायेगी कि सारे बच्चों का पेट भरे। गरीब बच्चे भूख के मारे चूं-चूं करके मर जायेंगे।

इस मुसीबत का अन्दाज़ा करके दोनों घबरा उठे। दोनों ने फैसला किया कि कानिस पर थोड़ा-सा दाना रख दिया जाय। श्यामा खुश होकर बोली—तब तो चिड़ियों को चारे के लिए कहीं उड़कर न जाना पड़ेगा न?

केशव—नही, तब क्यों जायेंगी?

श्यामा—क्यों भइया, बच्चों को धूप न लगती होगी?