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छानबीन अभी उस आत्यंतिक लगन से की भी नहीं जा सकी है जो कि अपेक्षित है। मुझे यक़ीन है कि अगले कुछ बरसों में मुझे या मेरे किसी और उत्साही भाई को और भी कुछ कहानियाँ मिलेंगी।

उर्दू से प्राप्त कहानियों को ज्यों का त्यों छाप देना हिन्दी पाठकों के प्रति अन्याय समझकर मैंने उनको हिन्दी का जामा पहनाया है––मुंशीजी की अपनी हिन्दी का, यानी जहाँ तक मुझसे हो सका। कहानी की आत्मा ही नहीं, भाषा और शैली की भी रक्षा करने के इस प्रयत्न में मुझे कहाँ तक सफलता मिली है या नहीं मिली, इसका निर्णय तो आप करेंगे, पर मुझे संतोष है कि मैंने अपनी ओर से इसमें कुछ उठा नहीं रखा।

उर्दू संग्रहों में मुंशीजी की दो कहानियाँ 'बरात' और 'क़ातिल की माँ' ऐसी मिलीं जो हिन्दी में नहीं मिलती। मुझे उनको भी शामिल कर लेना चाहिए था। लेकिन मैंने उनको छोड़ देना ही ठीक समझा क्योंकि वही या लगभग वही कहानियाँ, बहुत थोड़े हेर-फेर के साथ, श्रीमती शिवरानी प्रेमचंद के कहानी संग्रह 'नारी हृदय' में मिलती है। उनके शीर्षक क्रमशः 'वरयात्रा' और 'हत्यारा' हैं। संग्रह में आने के पहले ये दोनों ही कहानियाँ 'हंस' में छपी थीं, खुद मुंशीजी ने उन्हें छापा था। मुंशीजी के नाम से ये कहानियाँ कब और कैसे उर्दू में छपने लगीं, इस रहस्य का उद्घाटन हुए बिना उन कहानियों को इस संग्रह में शामिल करना ठीक नहीं जान पड़ा। हो सकता है कि वे संग्रह मुंशीजी के देहान्त के बाद प्रकाशकों ने अपने मन से तैयार कर लिये हों। जो भी बात हो, ये कहानियाँ विवादास्पद हैं और उनको यहाँ शामिल नहीं किया गया।

'ताँगेवाले की बड़' और 'शादी की वजह' सही मानों में कहानी को प्रेमचंदी परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आतीं, लेकिन अत्यंत रोचक हैं, कहानी के समान ही रोचक, उन्हें किसी तरह छोड़ा नहीं जा सकता था और लेखों के साथ उनको देना उनकी मिट्टी खराब करना होता क्योंकि वे लेख से ज्यादा कहानी के क़रीब हैं और उनकी चाशनी बिल्कुल कहानी की है, इसलिए उन्हें यहीं शामिल कर लिया गया है। ये दोनों ही चीजें 'ज़माना' में छपी थीं और 'बंबूक़' के नाम से छपी थीं। पता लगाने पर मालूम हुआ कि अपनी हलकी-फुलकी चीज़ों के लिए मुंशीजी कभी-कभी इस नाम का इस्तेमाल करते थे जो १९०५ के आसपास कानपुर में ही उन्हें अपने करीबी दोस्तों की महफ़िल में मिल चुका था।

अमृत राय