प्रतिशोध
माया अपने तिमजिले मकान की छत पर खड़ी सड़क की ओर उद्विग्न और अधीर ऑखो से ताक रही थी और सोच रही थी, वह अब तक आये क्यों नहीं? कहाँ देर लगायी? इसी गाड़ी से आने को लिखा था। गाड़ी तो आ गयी होगी, स्टेशन से मुसाफिर चले आ रहे है। इस वक्त तो कोई दूसरी गाड़ी नहीं आती। शायद असबाब वगैरह रखने मे देर हुई, यार-दोस्त स्टेशन पर बधाई देने के लिए पहुंच गये हों, उनसे फुर्सत मिलेगी तब घर की सुध आयेगी! उनकी जगह मैं होती तो सीधे घर आती। दोस्तो से कह देती, जनाब इस वक्त मुझे माफ कीजिए, फिर मिलिएगा। मगर दोस्तों में तो उनकी जान बसती है!
मिस्टर व्यास लखनऊ के नौजवान मगर अत्यन्त प्रतिष्ठित बैरिस्टरो में है। तीन महीने से वह एक राजनीतिक मुकदमे की पैरवी करने के लिए सरकार की ओर से लाहौर गये हुए हैं। उन्होने माया को लिखा था—जीत हो गयी। पहली तारीख को मैं शाम की मेल से ज़रूर पहुँचूंगा। आज वही शाम है। माया ने आज सारा दिन तैयारियो मे बिताया। सारा मकान धुलवाया। कमरों के सजावट के सामान साफ कराये, मोटर धुलवायी। यह तीन महीने उसने तपस्या के काटे थे। मगर अब तक मिस्टर व्यास नही आये।
उसकी छोटी बच्ची तिलोत्तमा आकर उसके पैरों से चिमट गयी और बोली—अम्मा, बाबू जी कब आयेंगे?
माया ने उसे गोद में उठा लिया और चूमकर बोली—आते ही होगे बेटी, गाडी तो कब की आ गयी।
तिलोत्तमा—मेरे लिए अच्छी-अच्छी गुड़ियाँ लाते होगे।
माया ने कुछ जवाब न दिया। इतजार अब गुस्से में बदलता जाता था। वह सोच रही थी, जिस तरह मुझे हजरत परेशान कर रहे है, उसी तरह मैं भी उनको परेशान करूँगी। घण्टे भर तक बोलूगी ही नहीं। आकर स्टेशन पर बैठे हुए है ! जलाने मे उन्हें मजा आता है। यह उनकी पुरानी आदत है। दिल को