पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/५७

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देवी


रात भीग चुकी थी। मै बरामदे में खड़ा था। सामने अमीनुद्दौला पार्क नीद मे डूबा खडा था। सिर्फ एक औरत एक तकियादार बेंच पर बैठी हुई थी। पार्क के बाहर सड़क के किनारे एक फ़कीर खड़ा राहगीरों को दुआएँ दे रहा था--खुदा और रसूल का वास्ता......राम और भगवान का वास्ता......इस अंधे पर रहम करो।

सड़क पर मोटरों और सवारियों का तांता बन्द हो चुका था। इक्के-दुक्के आदमी नजर आ जाते थे। फकीर की आवाज़ जो पहले नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ थी, अब खुले मैदानों को बुलद पुकार हो रही थी! एकाएक वह औरत उठी और इधर-उधर चौकन्नी ऑखो से देखकर फ़कीर के हाथ में कुछ रख दिया और फिर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ़ चली गयी। फकीर के हाथ में कागज़ का एक टुकड़ा नजर आया जिसे वह बार-बार मल रहा था। क्या उस औरत ने यह काग़ज दिया है?

यह क्या रहस्य है? उसको जानने के कुतूहल से अधीर होकर मै नीचे आया और फ़कीर के पास खड़ा हो गया।

मेरी आहट पाते ही फ़कीर ने उस कागज़ के पुर्जे को दो उँगलियो से दबाकर मुझे दिखाया और पूछा--बाबा, देखो यह क्या चीज है?

मैंने देखा--दस रुपये का नोट था! बोला दस रुपये का नोट है, कहाँ पाया?

फ़कीर ने नोट को अपनी झोली में रखते हुए कहा--कोई खुदा की बंदी दे गयी है।

मैंने और कुछ न कहा। उस औरत की तरफ दौड़ा जो अब अँधेरे में बस एक सपना बनकर रह गयी थी।

वह कई गलियों में होती हुई एक टूटे फूटे गिरे-पड़े मकान के दरवाज़े पर रुकी, ताला खोला और अन्दर चली गयी।

रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मैं लौट आया।